Last modified on 30 जून 2008, at 00:10

महानगर / कुमार मुकुल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:10, 30 जून 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सुबहें तो तुम्हारी भी

वैसी ही गुंजान हैं

चिड़ि़यों से-कि किरणों से

व भीगी खुशबू से


बस तुम ही हो इससे बेजार

कुत्ते की मानिन्द सोते रहते हो


तुम्हारे नाले विराट हैं कितने

बलखाती विविधताओं से पछाड़ खाते

और नदियों को

बना डाला है तुमने

तन्वंगी

और तुम्हारी स्त्रियाँ

कैसी रंगीन राख पोते

भस्म नज़रों से देखती

गुज़रती जाती हैं।