भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राह को अपना बनाना रह गया / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:10, 13 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=एहस...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राह को अपना बनाना रह गया
ठोकरें हर रोज़ खाना रह गया

मंजिलें आकाश के तारे बनीं
दूर रह कर टिमटिमाना रह गया

जो तुम्हारे दिल मे था कह ही चुके
और क्या सुनना सुनाना रह गया

चल पड़े बन मस्त मौला राह पर
देखता हम को जमाना रह गया

हर जगह कब्ज़ा अमीरों ने किया
अब न मुफ़लिस का ठिकाना रह गया

हैं बहुत सीली लकड़ियाँ दर्द की
दे धुँआ दिल को जलाना रह गया

रेगजारों में चला जाता नहीं
जख़्म पाँवों के छिपाना रह गया