भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दूर फिर आज कोई टेर सुनाई दी है / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:58, 13 मार्च 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=रंग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर फिर आज कोई टेर सुनाई दी है
साँवरे से किसी दुखिया ने दुहाई दी है

फिर किसी ग्राह ने मुश्किल में है गज को डाला
मौत दे सामने चीखें औ रुलायी दी है

जीते जी चैन ही पाया न मसर्रत कोई
जब मिली मौत तो ग़ैरों-सी विदाई दी है

जिसने माँ बाप को ठुकरा दिया बुढ़ापे में
ऐसी औलाद को कब माँ ने बुराई दी है

नाम लेके तेरा जीते रहे हम शामो सहर
मेरी तक़दीर में लिख तू ने जुदाई दी है

थरथराते रहे लब अश्क़ रुके आंखों में
देने वाले ने अजब हम को खुदाई दी है

जिसने बख्शी है ज़माने को जमीं जन्नत सी
उस की सूरत हमें हर कण में दिखाई दी है