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सुरसरि तट राम पधारे / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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मैंने देखा एक दिवस
सुरसरि तट राम पधारे,
अखिल भुवनपति होकर भी
जांगिया वेश को धारे।
 तापस वेश विशेष तेज से
 छवि की छटा सहज थी,
 छूकर चरण मोक्ष पर हँसती
 तट की पावन रज थी।
लहरों के पट हटा
छटा देखी थी रघुनन्दन की,
आप्तकाम अभिराम राम
वैदेही के जीवन की।
 जिस क्षण वह प्रतिविम्ब
 हृदय के दर्पण में आया था,
 पूरी हुई साध युग-युग की
 दर्शन फल पाया था।
मैंया कहते हुए राम
गंगा के द्वार खड़े थे,
जाग उठे मानो सुरसरि के
सोये भाग्य बड़े थे।


 सीता ने कर नमन
 देवसरि को सम्मान दिया था,
 ममता दो धाराओं को
 एकाकार किया था।
स्वयं हृदय से सहज
मंगलाशीश उमड़ आये थे,
स्नेह जलद हो सघन
सुरधुनी के तट पर छाये थे।
 दिया अचल अहिवात
 सिया को गंगा ने हर्षित हो-
 नारिधर्म आदर्श
 धरा पर वन्दित अभिनन्दित हो।
आती थी माधुरी हृदय तक
निर्निमेष नयनों से,
स्नेह और करुणा की
धारा बहती थी वचनों से।
 भरा हुआ आनन्द सुधा से
 अन्तरमुदित अमित था,
 रोम-रोम गंगा की धारा
 के समान पुलकित था।
तप्तरेत कोमल पद
पीड़ा मौन अमाप हुई थी,
पीड़ा हारी चरणों में
आकर निष्ताप हुई थी।
 खण्डित हुई उपेक्षित पग-पग
 कहीं नहीं टिक पायी,
 राम! तुम्हारे ही उर में
 करुणा अनन्त अँखुआयी।
तुमने कर संकल्प सुदृढ़
जीवन के बन्धन तोड़े,
झोपड़ियों से महलों तक
नाते सनेह के जोड़े।
 जीवन भर आत्मीय प्रेम का
 सतत प्रसार किया था,
 भारतीय संस्कृति पर
 यह अनन्य उपकार किया था।
मेरा जीवन राम!
तुम्हारे जीवन से प्रेरित है,
लोक, धर्म के लिए
किया जिसने सब कुछ अर्पित है।
 
 यदि तुम आते नहीं राम!
 बंधवता जाग न पातीं,
 मनुज धर्म की ज्योति न जगती-
 जगती अश्रु बहाती।
अश्रु स्नात रहती मर्यादा
मानवता अकुलाती,
मिटती नहीं असुरता-
सुरता पृथ्वी से मिट जाती।
 भवसागर से पार सभी को
 क्षण में कर देते हैं,
 सुरसरि पार उतरने को
 वे ही मौका लेते हैं
हुआ कुलीन निषाद
मिट गये थे विवाद जीवन के,
पावन हुआ अपावन
भागे कलुष निकल तन-मन के,
 धन्य हो गया केवट
 नौका धन्य हो गयी गंगा,
 धन्य हो गयी साथ-साथ
 मैं तैरी बनी उमंगा।
चले गये वे धीर-वीर
सुकुमार लोक हितकारी,
रहे ढूँढ़ते सजल नयन
पर कहाँ मिले धनुधारी?
 खाली नौका, सूनी धारा,
 सन्ध्या-सा नीरव तट,
 उझक-उझक मैं रही देखती
 हटा-हटा कर जलपट।
सब कुछ नीरस हुआ
मनस में पीड़ा जाग उठी थी,
मधुर मोहनी मूरत का ही
दर्शन माग उठी थी।
 
 चिरंजीव कामना हो उठी
 पुनर्मिलन की उर में,
 गूँज उठी अविराम
 रामधुन मेरे अन्तःपुर में।