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तीर्थ शक्रावतार पर / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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शक्रतीर्थ पर शकुन्तला
नित स्नान हेतु आती थी,
यौवन के उल्लास रास में
मधुर-मधुर गाती थी।
 देख रूप लावण्य
 मुझे भी अमित तोष मिलता था,
 कम्र भावनाओं का पाटल
 अन्तस में खिलता था।
कौशिक का तप-तेज
रूप की छटा मेनका वाली,
यौवन से संगमित हुई
हो उठी और मतवाली।
 अंग-अंग से शुभ्र रश्मियाँ
 हर पल फूट रही थीं,
 भाव भंगिमाओं से
 नव दामिनियाँ टूट रही थी।
मुझे लगा तब निखिल
सृष्टि का केन्द्र बिन्दु नारी है,
मधुर छवि छटा पर जिसकी
सब जगती बलिहारी है।
 यही देह आकर्षण और
 विकर्षण की माता है।
 समय-समय दोनों की महिमा
 को जीवन गाता है।
आकर्षण परिणाम रूप में,
स्थूल सृष्टि देता है,
और विकर्षण आत्मज्ञान की
सूक्ष्म दृष्टि देता है।
 मैंने दोनों भाव सहज ही
 जीवन से पाये हैं,
 दोनों के गुण यथायोग्य
 मैंने सदैव गाये हैं।
सहज देह निर्दोष,
दोष मन के कारण पाती है,
हाय! अकर्ता होकर भी
यह कर्ता कहलाती है।
 जहाँ दोष-गुण दोनों
 रहकर मौन पला करते हैं,
 मन से हो संलग्न
 यथा आकर ढला करते हैं।
अतः देह निरुपाय
दोष-गुण की भाषा क्या जाने?
वह तो मन की चेरी है
उसकी ही आज्ञा माने।
 मन की यह अदृश्य सत्ता ही
 सब कुछ करवाती है
 विवश देह आचरण युक्त
 होकर सुख-दुख पाती है।
नामरूप आबद्ध जगत
मिथ्यारोपण करता है
पिहित सत्य को भूल दृश्य
आचरण वरण करता है।
 रम्य तीर्थ शक्रावतार
 नैषर्गिक छवि धारी है,
 दर्पण-से उज्ज्वल निर्मल
 जल की सुषमा न्यारी है।
स्नानमग्न थी शकुन्तला
सुधि-बुध खोयी-खोयी-सी,
जाग उठा सौन्दर्य ज्योति
या विधुरस में धोयी-सी.
 रूपसुधा मानो दर्पण-
 घट से छलकी पड़ती है,
 लाती हूँ जो ढूँढ वही
 उपमा हलकी पड़ती है।
निर्मल जीवन का सिंगार
स्वयमेव हुआ करता था,
मन की और सरोवर की
लहरों में सुख भरता था।
 शकुन्तला की मुँदरी फिसली
 गिरी एक दिन जल में,
 सत्वर निगल गयी मैं
 उसको बिना विचारे पल में।
इस घटना का शकुन्तला को
ज्ञान नहीं हो पाया,
हाय! चूक पर चूक हुई
संकट पर संकट आया,
 गयी निकट प्रिय के
 चरणों की लिये मधुर अभिलाषा
 किन्तु शाप बस भ्रमित
 नृपति की बदल गयी थी भाषा।
नहीं नृपति दुष्यन्त कुटिल ने
सुमुखी को पहचाना,
किया तिरस्कृत
मन-मन्दिर में कहीं न दिया ठिकाना,
 छलक पड़े थे नेत्र
 हृदय की गति अनवद्य हुई थी,
 लय विहीन हो
 जीवन कविता नीरस गद्य हुई थी।
हाय! नियति की गति ने
कैसे यह दिन दिखलाये हैं?
मधुर बहारों के मन्दिर में
खार उतर आये हैं।
 प्रिय का मिलन वचन आश्वासन
 बदल गया क्यों छल में?
 सपनों का प्रासाद
 भंग हो गया एक ही पल में।
दग्ध हुए कामना-कुसुम
जीवन की लतिका रोयी,
सोनल पंखों वाली तितली
दावानल में खोयी;
 रीझ-खीझ दोनों में
 दूरी अधिक नहीं होती है,
 रीझ प्राण न्यौछावर करती
 खीझ अश्रु ढोती है।
रीझ गयी थी रूप-रंग-
रस-गंध-स्पर्श पाने को,
कंचन-कलश मान बैठी थी
विषघट अनजाने को।
 ऋषिकन्या होकर भी
 शुभ आचरण नहीं कर पायी,
 यौवनमद ने ज्ञान छीनकर
 विषयाशक्ति जगायी।
एक दिवस बाहों में
धरती-अम्बर खिंच आये थे,
एक दिवस तारों के मंडल
तन-मन में छाये थे।
 एक दिवस पूर्णिमा प्राण में
 आयी मुस्कायी थी,
 एक दिवस वासन्ती श्री
 मन-उपवन में छायी थी,
किन्तु आज निर्गन्ध धूर्म के
बादल उमड़ रहे हैं,
दृष्टि विरोधी हुई
पाटलों के दल अकड़ रहे हैं।
 मधुर चन्द्रिका का गुण भी
 कैसा विपरीत हुआ है?
 उर की टीस बढ़ाने वाला
 पिक-संगीत हुआ है।
समझ गयी हूँ स्वर्ग-नर्क
दोनों को मन उपजाता,
जौ भर सुख का स्वप्न
दुःख-हिमवन्त सहज ले आता।
 सुख वर्षो का
 नहीं क्षणों से अधिक लगा करता है
 जबकि दुःख क्षण युग सा
 बनकर नीरसता भरता है।
जाने कैसी आँधी आयी
मन की ज्योति बुझाती,
बिखर गयी जीवन पंकज की
कोमल पाती-पाती।
 हाय! प्रेम के मलयानिल में
 लू चल उठी अचानक
 धूल धुसरित हुआ सभी कुछ
 छवि हो उठी भयानक।
डूब रहा जीवन करूणा की
धारा में विगलित हो,
निर्बल हुई बुद्धि निर्मल
निज पथ से गयी भ्रमित हो,
 राजरोग भवभोग
 अन्त तक छूट नहीं पाता है,
 तृष्णाओं को कण्ठ लगाये
 ही नर मर जाता है।
किन्तु अगर सद्गुरु की
पावन दयादृष्टि हो जाये,
तो जीवन में ज्ञान
और वैराग्य सतत मुस्काये,
 किन्तु बिना गुरुकृपा
 बिना अनुकम्पा परमेश्वर की,
 सम्भव नहीं दिशा को पाना
 उस अनादि अक्षर की।
मौन हो गये भाव
सभी उर-अन्तर की हलचल के,
सूख गये अधरों के
पनघट नयनों के घट छलके.
 शुष्क हुई सैकतिनी मन की
 भाव विरुद्ध हुए थे,
 अपमानों की रेत उड़ चली
 दृग अवरुद्ध हुए थे।
यौवन के श्रंगार सभी
अंगार बने जाते थे,
तिरस्कार की ज्वालाओं में
अंग जले जाते थे।
 देख कोमला के संकट
 मैं बहुत छटपटायी थी,
 उर-अन्तर की सघन वेदना
 दृग-तट पर आयी थी।
रूप सिन्धु का रत्न कमल
निर्धूम सुलगते देखा,
खुले दृगों से मनुजा को
फिर हाय! विलखते देखा।
 पश्चाताप हुआ था मुझको
 अपनी चंचलता पर
 चंचलता ने बज्र गिराया
 क्यों सुकुमार लता पर?
हाय! मुद्रिका निगल
किया मैंने अनर्थ कितना था?
शकुन्तला के लिए सघन
पीड़ा का जाल बना था।
 क्या बतलाऊँ वे क्षण
 मुझको याद बहुत आते हैं
 सोये हुए दृगों के निर्झर
 नित्य जगा जाते हैं।
सजल हुई प्राणों की धरती
विलगित उर का आँगन,
डूबी हुई वेदनाओं में
सुमुखी नत चन्द्रानन।
 भग्न हुए मृदुहास पर्व
 दुख दर्द उभर आये हैं,
 नियतिचक्र ने नित्य नये
 स्वर अपने दिखलाते हैं।
भावों के द्विजवृन्द न समझे
तिल भर ग़लत सही को,
हाय! स्वप्न सुख हंस उड़ गये
मानस छोड़ कहीं को।
 नष्ट हो गया शकुन्तला के
 जीवन का सब पानी,
 शकुन्तला ही नहीं रही-
 मनुजा की यही कहानी।
जिस मनुजा ने जीवन को
जीवन्त बनाया जग में
स्नेह प्रहाहित है जिसका ही
मानव की रग-रग में,
 हाय! उसी का जीवन क्यों
 बन गया दुखों का आगर
 जिसने जीवन दिया,
 दिया ममता का आचल सुन्दर
जिसने शीतल छाँव
मनुज को दी है जीवन पथ पर,
हृदय विदारक दंश मिले क्यों
उसको ही पग-पग पर?
 आयी थी वह धराधाम पर
 प्रेमामृत पाने को,
 किन्तु ज़िन्दगी यहाँ विवश है
 घुट-घुट मर जाने को,
जाने किसकी नजर लगी
जाने कैसा है टोना?
स्वप्न हो गये हास पर्व
बस शेष बचा है रोना।
 जीवन के सोपानों में
 क्या उसने नहीं कमाया?
 प्रेम और पीड़ा दोनों ने
 मिलकर साथ निभाया।
जीवन की धाराओं में
जी भर कर दुलराया है,
मनभाया पाया, उसने-
अनभाया भी पाया है।
 प्रिय मुद्रिका उदर से मेरे
 धीवर ने जब पायी,
 हर्षित हो दुष्यन्त नृपति की
 सेवा में पहुँचायी।
शापमुक्त हो नृपति
कण्व आश्रम चिन्तन में डूबे
शकुन्तला के प्रेम समर्पण
अभिनन्दन में डूबे,
 हाय-हाय कर उठा हृदय
 'वह कहाँ प्रिया पावन है?'
 आखिर क्यों कर किया तिरस्कृत,
 ज्वलित हो उठा मन है।
हृदयमूर्ति क्यों हुई विसर्जित
कुछ न समझ आता है,
पाऊँ कहाँ-कहाँ मैं ढूँढूँ
हृदय जला जाता है?
 फलित हुआ संकल्प नृपति का
 सही समय को पाकर,
 पुत्र भरत के साथ मिल गयी
 शकुन्तला वन पथ पर।
जीवन ज्योति जग उठी
मैं भी फूली नहीं समायी,
हृदय कमल हो उठा प्रफुल्लित
दिनों बाद मुस्कायी।
 सहते व्यथा-कथा को कहते
 कितने युग बीते हैं?
 आप्तकाम हो सकी न मैं
 भावों के घट रीते हैं,
किन्तु विधाता!
एक कामना बार-बार आती है,
घोर विषमता देख सृष्टि की,
आत्मा अकुलाती है।
 एक बार हो सकें
 शून्यगत ईर्ष्या की ज्वालाएँ
 एक बार फिर निर्विकार
 जन-मन में ज्योति जगाएँ।
एक बार सद्भाव-प्रेम की
धार बहा दो पावन,
एक बार खिलखिला उठे,
फिर मानवता का आँगन।