नचिकेता जिज्ञासु / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
एक दिवस जीवन कुटीर में
मैं सानन्द मगन थी,
धरती से अम्बर तक
छायी जीवन ज्योति सघन थी।
नव अभिनव भावों के घन
उर नभ पर घुमड़ रहे थे।
अनजाने निर्झर गंधों के
रह-रह उमड़ रहे थे।
वन उपवन गिरि शिखर
घाटियों के शृंगार मनोहर,
विवश कर रहे थे नयनों को
रहें निष्पलक युग वर।
मलयगंध चुपके-चुपके
पावों को छू जाती थी,
बुझती हुई व्यथाओं को
अनबोले उकसाती थी।
जीवन की ज्योत्स्ना
बिखरती थी जीवन के तट पर,
निर्मलता के साथ शुभ्रता
आती उभर-उभर कर।
देख-देख मैं भी
मन ही मन फूली नहीं समाती,
जीवन की अविराम
साधना का अनन्त फल पाती।
राम राम गाती मैं
गाती राधे-राधे कृष्णा,
विषयों से हो दूर
भगाती मन मन्दिर से तृष्णा।
होकर रस से विलग
न क्षण भर कभी ठहर पाती हूँ,
वीतराग—सी विचरण में ही
रहती मदमाती हूँ।
नचिकेता को एक दिवस
वन विचरण करते देखा,
उभर रही थी उच्च भाल पर
जिज्ञासा की रेखा।
अपने में खोया-खोया-सा
वन-वन भटक रहा था,
ब्रह्मज्ञान का प्रश्न
निरन्तर मन में खटक रहा था।
यमाधिपति ब्रह्म्रज्ञ न जाने
कब तक मिल पायेंगे?
परमशान्ति के सूत्र कमल
मन में कब खिल पायेंगे?
कहाँ छिपे हो देव!
क्यों न आकर दुख को हरते हो?
बढ़ती हुई वेदना को
क्यों शान्त नहीं करते हो?
ब्रह्मज्ञान की जिज्ञासा
क्षण प्रतिक्षण उत्कर्षित थी,
तत्त्व बोध के लिये
छटपटाहट से मैं हर्षित थी।
युगों-युगों में कहीं एक
जिज्ञासु जन्म लेता है।
प्रभु प्रेमी होकर अनन्य जगती को सुख देता है।
आये गये असंख्य
तीर सुरसरि के, दर्शन पाये
ब्रह्मज्ञान के लिये भाव
पर कितनों में जग पाये?
जो आया सकाम आया
कुछ देकर कुछ पाने को।
इने गिने अरये परहित में
रंचक कर जाने को।
नचिकेता के पिता
यज्ञ तप दान किया करते थे।
नित्य ब्राह्मणों को गौयें
बहुसंख्य दिया करते थे।
एक बार गोदान हेतु
जर्जर गायें मिल पायीं
और दान संकल्प हेतु
ऋषि के आश्रम में आयीं।
मन ही मन ऋषि
दुखी हुए पर करते क्या बेचारे?
दे तो दिया वृद्ध गोधन,
बे मन दृग हुए पनारे।
ऋषि तप बल भय कारण
कोई बोल नहीं कुछ पाया
मौन रहे सब स्वर,
विरोध में एक नहीं उठ पाया।
किन्तु पुत्र नचिकेता का
उर अन्तर चिन्ताकुल था
धर्म नहीं यह तो अधर्म है
कहने को व्याकुल था।
बोला-" पूज्य पिता जी
मुझको दान तत्त्व समझायें
किसे और क्या दान
दिया जा सकता है बतलायें? "
" पुत्र! दान निष्काम और
प्रिय धन का फल देता है,
और स्वार्थ बस दान
धर्म की ज्योति निगल लेता है। "
" कहो पिताजी!
कौन आपके लिए सर्वप्रिय धन है?
जिसका दान
अनन्त पुण्य फल का अनुपम साधन है। "
" पुत्र! तुम्हारे सिवा न कोई
प्रिय यह सर्वविदित है,
योग यज्ञ तम दान
सभी कुछ तेरे-मंगलहित है।
आखिर ऐसा प्रश्न
आज क्यों मुझसे पूछ रहे हो?
भाव भंगिमा गिरा प्रकम्पित
क्योंकर बहे-बहे हो? "
" पूज्य पिता जी.
जब मुझको सर्वप्रिय मान रहे हैं
तो फिर ले संकल्प किसे
कर मेरा दान रहे हैं? "
सुनकर पुत्रवचन
उद्दालक मौन रह गये क्षण भर।
तीन बार नचिकेता ने
फिर प्रश्न किया साहस कर।
देख पुत्र हठ
जगा क्रोध ऋषिराज तमक कर बोले-
"देता हूँ मैं तुम्हें आज यम को"
न रंच भी डोले।
दृढ़ प्रतिज्ञ ऋषि पुत्र
दिव्य तप तेज पुंज अविकारी,
कर प्रणाम चल पड़ा
उसी क्षण आश्रम से व्रतधारी।
ऋषिमन पुत्रमोह से भीगा
पश्चाताप हुआ है,
प्रथम बार वैराग्य योग
के दृग से अश्रु चुआ है।
दृश्य देख यह मैं भी
कुछ क्षण को ममता में खोयी
नित्य चंचला होकर भी
मैं भीतर-भीतर रोयी।
देखे सुने पुत्र मैंने भी
बड़े-बड़े गुण आगर,
किन्तु नहीं कोई
नचिकेता-सा वैराग्य प्रभाकर।
मोहमुक्त नचिकेता ने
देखा न एक पल मुड़कर
चला गया ऋषिपुत्र मगन मन
एक अजाने पथ पर।
नचिकेता जिज्ञासु
अभय, साहस का सत्सागर है।
त्यागी परम विरागी
ईश्वर अनुरागी अक्षर है।
ब्रह्मा के गौतम,
गौतम के वाजश्रवा अमर हैं
उनके अरूण के सुत
श्री उद्दालक ऋषिवर हैं।
ब्रह्मतत्व अन्वेषक
पावन जग प्रणम्य नचिकेता-
उद्दालक का पुत्र
परम ज्ञानी ऋषि आत्म-विजेता।
सहज तपस्या की प्रतिमा
जाज्वल्यमान अविकारी।
जीवन को जीवन्त बनाकर
बना लोक हितकारी।
ब्रह्मज्ञान के सूत्र सुधाकर
अक्षर पाकर यम से
रम्य प्रणम्य हो गयी छवि
जीवन की श्री संयम से।
पिता वचन को मान
चल पड़ा नचिकेता उस पथ पर,
जिस पर जाकर
यहाँ न कोई आता कभी लौटकर।
पथ अनन्त है
जो अनन्त की ओर चला जाता है
एक बार बढ़ता जो इस पर
बढ़ा चला जाता है।
जीवन के रस रूप रंग
पर मन को ठग लेते हैं।
जुड़ते हुए सरस नातों को
सहज तोड़ देते हैं।
किन्तु मनस जब षोधित होकर
ब्रह्म रंग पाता है,
ज्योतिर्मय होकर जीवन
आलोक जगा जाता है।
नचिकेता के पूर्व सुकृत,
तप, त्याग, पुण्य सब मिलकर
ज्योति पुंज बन दिव्य
डदित हो गए सहज उर अन्तर।
उर मंदिर में जगा
तत्व-दर्शन का परम उजाला
जन्म-जन्म के तमक्ष्खण्डों
को क्षणभर में धो डाला।
बिना सघन तम के
प्रदीप का मान नहीं बढ़ता है।
बिना चोट खाये पत्थर
भगवान नहीं बनता है।
प्रतिमाओं की शक्ति
बिना संघर्ष न छवि पाती है।
बिना त्याग साधना
कभी आलोक न बिखराती है।
पीड़ा के बिन कहाँ
प्राण का मोल समझ आया है।
विरहानल में तपे बिना
कब प्रेम निखर पाया है।
सुख साधन अनन्त
जीवन का मोल न समझा पाते,
जबकि दुखों के पुंज
एक क्षण में ही हैं बतलाते।
बिना ताप के शीतलता
कब गरिमा पा सकती है?
बिना शीत के धूप
गुनगुनी कैसे भा सकती है?
प्राणों के बिन कौन
व्याथाओं को स्वर दे पाया है?
कर्महीन कब जीवन नौका
विधिवत खे पाया है?
प्राणवन्त तप त्याग-मूर्ति
नचिकेता आत्मबली है
कठिन परीक्षा है पग-पग
जिस पथ पर नाव चली है।
जहाँ परीक्षक और सहायक भिन्न नहीं रह जाते,
वही खींचते पाँव,
पकड़कर आगे वही बढ़ाते।
सहनशीलता की
अखण्ड प्रतिमा-सा नचिकेता है।
न्यौछावर कर जीवन ही,
जो ब्रह्मज्ञान क्रेता है।
पिता वचन रक्षण में तत्पर
जिद पर अड़ा हुआ है,
बीत गए दिन तीन द्वार पर
यम के पड़ा हुआ है।
देख अपार धैर्य, जिज्ञासा
श्री यमराज पधारे,
तेज पुंज ब्राह्मण कुमार से
सविनय वचन उचारे।
" क्रोधमुक्त ऋषिपुत्र!
धन्य तुम ऋषिकुल कमल दिवाकर
नमस्कार सत्कार आदि
के योग्य सदैव गुणागर।
सहिष्णुता के सिन्धु!
शान्ति विधु! मर्यादा के पालक!
धर्ममूर्ति! आज्ञाकारी!
सत्पथ अनुगामी बालक!
तीन रात्रि दुख दंश सहन कर
मुझको पाने वाले
वसुन्धरा के अमरपुत्र
मानवता के रखवाले।
तीन रात्रि दुख के बदले
वर तीन वांछित पा लो
मैं प्रसन्न हूँ वत्स!
भाग्य अपना अविलम्ब सम्हालो। "
मृत्युदेव! मुझ पर
अहेतुकी कृपा भाग्यवर्धक है।
स्नेह सुधा स्वयमेव
आत्म उन्नति की संवर्द्धक है।
पहला वर दे यही-
पिताजी मन संताप भुलाकर,
पहले की ही भाँति शान्ति
सन्तुष्ट रहें जीवन भर।
पुनः स्नेह सौजन्य
पूर्ववत पाकर मैं सुख पाऊँ।
पुत्रधर्म अपना मैं भी
सुन्दर सब तरह निभाऊँ।
एवमस्तु कह मृत्युदेव ने
क्हा और माँगो वर,
मैं प्रसन्न हूँ चाहो तो
दे दूँ जीवन की अक्षर।
स्वर्ग लोक के भोग
अपरिमित युग अनन्त तक ले लो।
माटी की काया के दुख
तुम और नहीं अब झेलो।
यहाँ मृत्यु का संकट
हरपल पास खड़ा रहता है।
सघन वासनसओं की
ज्वाला से जीवन दहता है।
और वहाँ पर
जरा मृत्यु से रहित भोग अक्षय है
भूख प्यास से मुक्त
दिव्य काया अद्भुत रसमय है।
षोकमुक्त सुर देह
दिव्य छवि क्षीण नहीं होती है
हाससिक्त रहती सदैव
सद्गन्ध मन्द ढोती है।
स्वर्ग एक आनन्दपूर्ण
शाश्वत अखण्ड उत्सव है,
किन्तु अग्नि विज्ञान
ज्ञान के बिना नहीं सम्भव है"
" मृत्युदेव!
इस दिव्य अग्नि विद्या में आप निपुण हैं
यद्यपि हूँ अनभिग्य
किन्तु मेरी श्रद्धा अक्षुण है।
श्रद्धावान ज्ञान का होता
सचमुच है अधिकारी
वर दूसरा-'अग्नि विद्या दें'
माने विनय हमारी।
जिसे जानकर जीव
स्वर्ण में अमृत तत्व पाता है,
फिर माटी के बन्धन में
बँधने न कभी आता है। "
" ऋषिकुमार!
इस अग्नि ज्ञान के पात्र तुम्हीं अनुपम हो,
मैं ज्ञाता हूँ, तुम्हें बताता
पूर्ण रूप् निर्भ्रम हो।
परम गुप्त यह अग्नि ज्ञान
अत्यन्त सूक्ष्म अक्षर है
षोकमुक्त आलोकयुक्त
लोकां की शक्ति प्रखर है।
यही अग्नि जग में जड़-
जीवन का षोधन करती है।
हरती है विकार तनम न के
दिव्य शक्ति भरती है।
ज्ञान रूप में यही अग्नि
इन्द्रिय मन बुद्धि सुधारे,
आत्मा से सम्बन्ध जोड़
अक्षर ऊर्जा संचारे।
नीलबिन्दु की मधुर अग्नि
साधक मन जब पाता है,
हो विकार से मुक्त
दिव्य उर-अम्बुज खिल जाता है।
सहज विनय सद्भाव
प्रेम वाणी में आ जाते हैं
कर प्रपच तम नष्ट
आप मन मन्दिर चमकते हैं।
यही अग्नि उन्नत कर
जीवन आलोकित करती है।
धीरे-धीरे निर्मल कर
देवत्व उदित करती है।
जिसके मन में दिव्य
अग्नि विद्या यह जग जाती है,
क्षणभंगुर जग की विलासिता
उसे नहीं भाती है।
फिर शास्त्रोक्त रीति से
इसका जो पालन करते हैं।
निश्चय ही वे देवलोक में
नव प्रकाश भरते हैं।
अग्नि ज्ञान की परम महत्ता
गोपनता समझाकर
मृत्युदेव ने नचिकेता से
कहा रहस्य सुधाकर।
नचिकेता ने
अग्नितत्व को विधिवत समझ लिया था।
अक्षर-अक्षर हृदयंगम
सारा गुरु ज्ञान किया था।
प्रस्तुत था कर दिया एक स्वर
ज्यों का त्यों कहने पर,
मुग्ध हो उठे मृत्युदेव
नचिकेता की प्रभुता पर।
मान और सम्मान
व्यक्ति का नहीं कभी होता है
जो होता है वह प्रतिभा
के कारण ही होता है।
यश अपयश के कारण
केवल गुण अवगुण होते हैं,
गुण भविष्य में भी हँसते हैं
पर अवगुण रोते हैं।
जिसके जीवन में
सद्गुण की गंगा लहराती है,
उसके जीवन में
सुख की चन्द्रिका मुस्कराती है।
काँटे होकर विवश
एक दिन पाटल बन जाते हैं,
दृग मौक्तिक बन हास कुसुम
अधरों पर गुन गाते हैं।
सतत अमंगलकर्ता करते
मंगल ही मंगल हैं,
सद्गुण की महिमा
अपार अनवद्य और उज्ज्वल है।
मृत्युदेव ने कहा
वत्स! मैं तुमसे अति हर्षित हूँ।
बिन माँगे ही एक और
वर करता अब अर्पित हूँ।
यही अग्नि विद्या
जिसका उपदेश किया सुख पाकर,
जग प्रसिद्ध होगी
अब से 'नचिकेता अग्नि' प्रभाकर।
पुण्य, यज्ञ, विज्ञान, ज्ञान
रूपी रत्नों की माला,
देता हूँ मैं तुम्हें,
नित्य देगी देवत्व उजाला।
भेदभाव करती न अग्नि यह
भूषण या दूषण में,
कर देती है भस्म
तेज से अपने बस कुछ क्षण में।
रूप रंग रस अवशोषित कर
पवन भस्म बनाती,
फिर शिवत्व से जोड़
तत्व का अनुपम बोध कराती।
पंचमहाभूतों का
कण-कण शिवमय हो जाता है।
क्षर से अक्षर होकर
अक्षर पदवी को पाता है।
जब तक अग्नि शेष
तब तक ही जीवन आलोकित है।
होते ही निःशेष
मृत्तिका पात्र मात्र दर्शित है।
धरती अम्बर सागर
सबका अक्षर संधारक है,
अग्नि तत्व ही एक मात्र
इस जग का संचालक है।
विधि रूपधारिणी
शक्ति का सात्विक अभिवन्दन हो
अग्नि तत्व का विधिवत
अर्चन वन्दन, अभिनन्दन हो।
वत्स! ज्ञान का धन हो-
चाहे, चाहे लौकिक धन हो,
जब तक पात्र न मिले
उचित देना न साध्य साधन को।
जब अपात्र के पास
ज्ञान की शक्ति चली जाती है
ज्ञानी और ज्ञान
छोनों की भाग्य छली जाती है।
यही शक्ति यदि
सतोगुणी का संरक्षण कर पाये
शान्ति चन्द्रिका बनकर
मानवता की ज्योति जगाये।
यही शक्ति भरपूर
प्रगति कर सुख श्री बरसाती है
मनवता हर्षित होती है
अभिनन्दन पाती है।
वत्स! तीसरा वर भी माँगो
देकर वचन निभा लूँ।
कर समृद्ध तेरे जीवन को
मैं भी कुछ सुख पा लूँ।
तुम जैसा सत्पात्र
न अब तक मिला मुझे जीवन में
कितने युग हो गये
सहेजे पूँजी अन्तर्मन में। "
" भगवन! 'आत्मज्ञान विषय'
अन्तिम अभिष्ट मेरा।
कहें कृपाकर
ताकि नष्ट हो मन के तम का घेरा।
सहज मुक्ति का
एक मात्र जो साधन है बतला दें।
आत्म ज्योति जाग्रत कर
मन के संशय विषय मिटा दे। "
" नचिकेता! यद्यपि यह तुमको
रंच अदेय नहीं है
जबकि ज्ञान यह
ऋषि मुनि देवों को भी देय नहीं है।
परम गुह्य अत्यन्त कठिन
यह ब्रह्म ज्ञान नीरस है,
जिसे प्राप्त कर जीवन में
रह सका न लौकिक रस है।
तुम चाहो तो मन वांछित
आयुष भाग अपना लो,
सुख साधन वैभव अपार
धन धाम आदि जितना लो।
चाहो तो अनन्त स्वर्गिक सुख,
क्षण में दे सकता हूँ,
अक्षर रूपसियाँ तुम पर
न्यौछावर कर सकता हूँ।
चाहो तो कुबेर का अक्षय
कोष तुम्हें दे डालूँ
पृथिवी का सम्राट बना दूँ
अपना धर्म निभा लूँ।
कंचन काया बार-बार
यह नहीं मिला करती है
यौवन की उन्मद कलिका
कब सदा खिला करती है?
वत्स! रम्य जीवन का
मन वांछित श्रंगार सजा लो।
आये हुए हाथ अवसर
का इच्छित लाभ उठा लो।
ज्यों बचपन की ज्योति न जगती
बार-बार जीवन में,
त्यों वसन्त यौवन कब आता
फिर जीवन उपवन में?
क्षणभंगुर जग में जाकर
फिर समय नहीं आता है,
कर पाता कुछ भी न जीव
फिर रह-रह पछताता है।
उठती हुई भावनाओं
का भी अभिनन्दन कर लो
माटी के सुरम्य सुख रस से
जीवन का घट भर लो। "
" भगवन! वैभव भोग
रोग से शान्ति छीन लेते हैं
ओज, तेज, पौरुष, विवेक
सब लेकर क्या देते हैं?
यौवन जीवन का वसन्त है
यह तो सत्य कथन है,
पर विलासिता में व्यतीत हो
यह अनुचित शिक्षण है।
चिर विलासिता सुरपुर की भी
तृप्ति न दे पायेगी।
कितना भी हो यत्न
आग से आग न बुझ पायेगी।
भोग भोग क्षण भर
बुझकर फिर ज्वाला बन जाता है
धीरे-धीरे मन शरीर
छोनों को झुलसाता है।
तृष्णाओं का जाल
अन्त में मन को कस लेता है।
'ऊँ राम' कहने तक का
अवसर न कभी देता है।
अन्त समय में
जालबद्ध हो जीव दुख पाता है,
पीड़ाओं से घोर युद्ध कर
देह त्याग पाता है।
किन्तु सघन संस्कार
जीव के साथ लगे रहते हैं
नहीं छूटते जन्म-जन्म,
यह साधु सिद्ध कहते हैं।
मृत्युदेव ब्रह्मज्ञ
त्तवदर्शी अखण्ड जग पावन
जरामृत्यु से रहित
स्हित सब दिव्य भोग मन भावन।
प्रभो! आप से
अमर सन्त का संग जिसे मिल जाये
उसे भोग सुरपुर
धरती का कैसे कोई भाये?
हो सक्षम सौभाग्य
उसे फिर कौन टाल सकता है?
चिदानन्द को त्याग
दुखद सुख कौन पाल सकता है?
यह आमोद प्रमोद और सुन्दरता क्षणभंगुर है।
इन्हे प्राप्त कर कलुषकुन्ज-सा
होता अन्तःपुर है।
जाने कितने पुण्य
फलित हो दर्शन बने तुम्हारे,
क्या जाने कब भाग्य
लौट पाये फिर द्वार हमारे?
अतः भोग से योग न दें
भगवन! है विनय हमारी
ब्रह्म ज्ञान की ज्योति
जगा हर लें मन का तम भारी।
अब प्रसन्न मन होकर
मुझको परम तत्व समझायें
कारण कार्य अधर्म
धर्म से जो है प्रथक बतायें।
त्रिगुल त्रिकाल
और सबसे है विलग एक जो सत्ता,
जिसे जानकर आप अमर हैं,
उसकी कहें महत्ता।
करें कृपा तो
ब्रह्म सूत्र जुड़ सके अधम जीवन से,
धन्य हो सके जीवन
मेरा परमतत्व दर्शन से। "
" वत्स! धन्य दृढ़
निश्चय तेरा मंगल ही मंगल हो।
अटल रहे विश्वास
हृदय में आस्था नित उज्ज्वल हो।
जीवन हो जीवन्त
जगत में नूतन ज्याति जगाये
परब्रह्य से जुड़कर
जीवन परब्रह्य हो जाये।
एक मात्र पुरुषोतत्म ही
है परम प्राप्य जीवन का
अन्य घटक मिलकर
खो जाते विचलित कर सर मन का।
नामरूपमय
निखिल सृष्टि का एक वहीं संचालक,
निराधार होकर
सबका आधार पूर्ण परिपालक।
नाम समस्त उसी प्रभु के हैं
कल्पित और अकल्पित।
उससे इतर नहीं कुछ जग में
सब उससे प्रतिपादित।
'ऊँ कार' अक्षर
अक्षर है ब्रह्मनाम सर्वोत्तम
यही प्रतीक परासत्ता का
साधक सिद्धि समागम।
यह अविनाशी प्रणव
श्रेष्ठ उस पथ का आलम्बन है,
जिसे पकड़ ज्योतिर्मय होता
साधक का जीवन है।
इसे हृदय में धारण कर
जो आगे बढ़ जाता है,
वह परमात्म प्राप्ति का
गौरव जीवन में पाता है।
जन्म मरण से मुक्त आत्मा
है नित्य ज्ञान अक्षर-सी.
सदा एक रस, अति पुराण
क्षय वृद्धि रहित ईश्वर-सी.
जब तक नहीं नित्य आत्मा
अनुभव में आ जाती है,
तब तक इन अनित्य भोगों से
विरति न हो पाती है।
आत्मा का सम्बन्ध न
रंचक है अनित्य भोगों से,
दिव्य तत्व वह लिप्त न होता
काया के रोगों से।
जब तक आत्मस्वरूप
बोध की ज्योति न जग जाती है,
जब तक मन की भ्रान्ति
जीव को जग में भटकाती है।
वीतशोक होकर भोगों से
जब मन कुछ करता है
पाकर प्रभु की कृपा
स्वयं में चिदानन्द भरता है।
सर्व सृष्टि हित एक मात्र
वह परमधातु अक्षय है,
विविध रूप में एक
उसी का दर्शन मंगलमय है।
वही सृष्टि से परे दृष्टि से वृहद रूपधारी है।
परब्रह्म परमात्मा की
गति अकथनीय न्यारी है।
इच्छित वास स्वयं में ही
जो नित करने वाला है
सत्वर दौड़ व्यथा प्रिय की
वह ही हरने वाला है।
परमैश्वर्यरूप होकर भी
अहं विमुक्त सदा हैं
अशरीरी होकर
शरीर भी धरते यदा-कदा हैं।
पुत्र! ब्रह्म की
रंचमात्र अनुभूति जिसे होती है।
होकर दिव्य दमकती
उसके अन्तस की ज्योति है।
हो विशोक साधक
जगती में ज्ञानी कहलाता है।
धीरे-धीरे धराधाम पर
पहचाना जाता है।
भेदभाव से रहित
भाव होता केवल ज्ञानी में
उर अन्तर में
परहित ही रहता उज्ज्वल ज्ञानी में।
परम ज्ञान परमात्मा
दोनों ही श्रमसाध्य नहीं हैं
स्वयं कृपा कर जिसे
चाहते मिलते, सत्य यही हैं।
कोरा ज्ञान विषमताओं को
नहीं दूर करता है
इसीलिए ज्ञानी होकर
भी जीव षोक करता है।
पठित ज्ञान उपदेश
मात्र का साधन है रह जाता
वह न कभी आचरण-
धरा पर क्षणभर को आ जाता। "
" परमतत्व के शुभ महत्त्व को
विज्ञ जनों से सुनकर,
और बुद्धि के द्वारा भी
उसका पवित्र चिन्तन कर।
जान नहीं पाता है
मानव फिर भी जाने क्योंकर
क्या कारण है इसका
भगवन! मुझसे कहें कृपाकर? "
" पुत्र! अनित्य बुद्धि,
मन, इन्द्रिय उस तक पहुँच न पाते
यह तो लौकिक ज्ञेय
वस्तुओं तक ही दौड़ लगाते।
कौन भला हो सकता है
सर्वज्ञ तत्व का ज्ञाता?
स्वयं अगर वह चाहे
तो कुछ क्षण अनुभव में आता।
सर्वजीत साम्राज्य
मध्य नर देह राजधानी है
उसमें भी उर गुहा ब्रह्म का
वास लोकमानी है।
जीवात्मा परमात्मा
दोनों यहाँ साथ रहते हैं
साथ-साथ ही सत्य
तत्व का सतत पान करते हैं।
परमात्मा है नित्य,
असंग अभोक्ता अविनाशी है
होकर एक अनेक कहाता
वह घट-घट-वासी है।
धूप छाँव से
परमात्मा जीवात्मा भिन्न नहीं हैं
सदा साथ रहने वाले
चिरसंगी मात्र यही हैं।
शेष संग हैं क्षणभंगुर
जुड़ते हैं छुट जाते हैं
आते हैं सुख लेकर
लेकिन दुख देकर जाते हैं।
ब्रह्म पंथ के पथिक
संग होकर असंग रहते हैं
मन्द-मन्द आनन्द
गंग की लहरों में बहते हैं।
जीवन को अनन्त जीवन से
जोड़ अनन्त बनाता
होकर मुक्त जीव जीवन से
ज्योतिर्मय हो जाता।
पुत्र! जगत में योग,
यज्ञ, जप, तप जो भी साधन हैं,
उसे प्राप्त करने में
कोई भी न पूर्ण पावन हैं।
ईश प्राप्त करने का
साधन एक मात्र विनती है,
इसके सिवा अन्य साधन की
वहाँ कौन गिनती है? "
मृत्युदेव को देखा मैंने
जलपद हटा हटाकर,
नचिकेता को धन्य कर रहे
अमृत ज्ञान बसाकर।
ब्रह्मज्ञान का दिव्य सुधारस
रह रह बरसा रहा था।
जिसके लिए युगों से
मेरा भी मन तरस रहा था।
एक सूत्र में बाँध
हृदय, मन, बुद्धि, विवेक सजाकर
मृत्युदेव कर उठे प्रार्थना
ईश्वर की हरषाकर-
" जय अनन्त! अविकार!
अखण्डित! अकथनीय! अक्षर वर!
जय प्राणों के महाप्राण!
जय महाकाल! जगदीश्वर!
जीवन-सर्जक! पालक! ध्वंसक!
अतुलनीय! अघहारी!
परमपूर्ण! आनन्द सिन्धु!
अच्युत! अपार उपकारी!
देशकाल गुणधर्म कर्म
वाणी से परे, अगोचर!
सबमें व्याप्त विलग भी
सबसे जय अखण्ड अखिलेश्वर!
नमरूप अगणित
अचन्त्यि! पापघ्न! अपरिमित पावन,
शाश्वत सत्य अनूप
धरे धरती अम्बर तारागण।
पाप पुण्य से परे
एकरस सतत दिव्य दुख हर्त्ता
जय इन्द्रियातीत सर्वेश्वर!
कर्त्ता सर्व अकर्त्ता।
जय अदृश्य नक्षत्र
हृदय-अम्बर के पूर्ण प्रकाशक,
देह विदेह आदि के देही
सत्वर भयभव नाशक।
जय निर्लिप्त अनादि
दृश्य दृष्टा के मध्य अधूमा
रूप रंग रस गंध स्पर्श
से परे महाचिति भूमा।
व्योमातीत निरंजन
भंजन विपति विपुल तम नाशक
जय-जय त्रिगुणातीत
पुनीत अनादि समष्टि विधायक।
अन्वेषण कर रहा
निरंतर मनीषियों का चिन्तन
वेद थके गीता रामायण-
थके उपनिषद दर्शन।
कृपा तुम्हारी
जिस पर हो वह ही तुमका पहचाने,
जप तप पूजा पाठ
भजन से कोई भी न जाने।
मुझपर भी यदि कृपा
आपकी थोड़ी-सी हो जाये।
गिरा अपावन मेरा भी
कुछ क्षण पावन हो जाये।
कहे अनकहे ब्रह्मतत्व को
कहकर कुछ सुख पा लूँ
मन वाणी के कलुष
मिटा लूँ जीवन ज्योति जगा लूँ।
" नचिकेता! यह देह
पंचभौतिक रथ अति उत्तम है,
इन्द्रिय अश्व, लगाम रूप मन,
बुद्धि सारथी सम है।
देह रूप रथ का स्वामी
जीवात्मा अजर अमर है,
चलने को प्रेरित करता
जो नित्य सत्य पथ पर है।
श्रवण, कीर्त्तन, मनन,
ध्यान, जप, नाम, रूप, लीलाएँ,
सब परमात्म पंथ
पावन हैं चाहे जो अपनाएँ;
किन्तु मोहबस भटक
लक्ष्य पथ से जो विलग हुआ है
भूल आत्मसत्ता
जग के विषयों से लिप्त हुआ है। "
अश्वों की गति मति
केवल सारथी ढाल सकता है।
मन की खींच लगाम
धाम अपना सम्भाल सकता है।
पुत्र! शिथिल संकल्प
सारथी ही यदि ढुलमुल होगा,
तो धीरे-धीरे उन्नत
विषयों का संकुल होगा।
उच्छृंखल हो अश्व
कहीं के कहीं चले जाते हैं
जीवन रथ के सहित
गर्त में गिरकर दुख पाते हैं।
दीक्षित और परीक्षित हो
सारथी सजग रह पाये
तो न कभी यह जीव
अधोगति में पकड़कर पछताये।
शुचि विवेक ही आत्मा का
सोनल प्रकाश होता है,
तम से घिरी बुद्धि का
जिससे ही विकास होता है।
यही विवेक प्रकाश
सन्त संगति से जग पाता है।
पुत्र! सन्त का संग
कृपा ईश्वर की दर्शाता है।
परमात्मा की कृपा
सभी का सुदृढ़ मूल अनुपम है,
उसके बिना डगर
जीवन की कहाँ हुई निर्भ्रम है।
+ + +
वत्स! इन्द्रियों से भी
उनके विषय बली होते हैं।
आकर्षित होकर साधक
निज तपबल सब खोते हैं।
यद्यपि मन विषयें के
संकुल से भी बलशाली हैं,
किन्तु ग्रस्त आसक्ति
दुष्ट मन की गति मतवाली है।
विषयासक्ति रहित होकर
यदि मन उज्ज्वल हो जाये,
तो फिर इन्द्रिय विषय
निबल से दूर खड़े पछतायें।
मन से बुद्धि, बुद्धि से आत्मा
उन्नत और बली है,
वह अखण्ड परमात्म लता की
अक्षर अमर कली है। "
जीवात्मा परमात्मा के
जो मध्य सुरम्य छटा है,
मन का श्री परमात्मा से
जिस कारण ध्यान हटा है,
मनोमुग्धकारिणी
यही तो मायाशक्ति मती है,
त्रिगुणमयी यह शक्ति
अलौकिक दुस्तर मूत्तिमती है।
होकर निकट ईश के
फिर भी देख नहीं पाता है,
अपने ही स्वरूप-
दर्शन से वंचित रह जाता है।
माया की यह शक्ति
ईश से बढ़कर बली-छली है,
जीवन रस कर पान
सदा से कैसी ढली-पली है।
'प्रकृति और अव्यक्त'
बली माया ही कहलाती है,
जो सदैव से भी
ब्लवान कही जाती है।
इसे जीतना मात्र
जीव के बस की बात नहीं है,
संयम नियम और
तप की कोई औकात नहीं है।
परमेश्वर की शरण
छोड़कर व्यर्थ शेष सब श्रम है
सर्वशक्ति सम्पन्न
एक सर्वेश्वर ही सक्षम है
जब तक प्रभु की दया
नहीं साधक को मिल पाती है
तक-तक यह अव्यक्त शक्ति
मया न छूट पाती है।
सबके स्वामी परमपुरुष
परमेश्वर ही निर्भ्रम हैं,
ज्ञान, क्रिया, बल आदि
शक्तियों के आधार परम हैं।
उनकी शरण,
कृपा से उनकी माया पट हरती है,
शाश्वत ज्योति जगाकर
मन को परमोज्वल करती है।
हृदय बिहारी परब्रह्म
पुरुषोत्तम अन्तर्यामी,
पंचतत्व के महाकोश,
व्यापक समष्टि के स्वामी।
नचिकेता! है यही
ब्रह्म का रूप वेद कहते हैं,
देकर ज्ञान प्रकाश
जीव को सावधान करते हैं।
" उठो मनुष्यों!
जन्म-जन्म की गहरी निद्रा त्यागो
पहचानो अपने स्वरूप को
जागो! जागो! जगो!
सुरदुर्लभ यह देह
प्राप्तकर क्यों प्रमाद करते हो?
क्यों न शरण गुरु की
जाकर जीवन में रस भरते हो?
शीघ्र त्यागकर अशिव पंथ
शिव पथ का वरण करो तुम
तत्वज्ञानी पुरखों का
पावन अनुकरण करो तुम।
जो इस पथ पर निकल,
गये हैं परम लक्ष्य तक अपने,
वही पूर्ण कर सकते हैं
बस इसे प्राप्ति के सपने।
स्वाध्याय सत्यंग
और प्रभु कृपा जिसे मिलती है
उसकी तुलना ढूँढ़े से भी
कहीं नहीं मिलती है।
जग से हो छत्तीस
तिरेसठ कभी न हो पाता है,
सुख हो या दुख हो
वह तो बस हरि के गुण गाता है।
चिन्तन करते हुए
ईशमय तनम न हो जाते हैं,
होते हैं जिस ठौर
वही पर अमरत बरसाते हैं।
विधि स्वरूप में
जो समष्टि का सर्जन नित्य करता है।
पालन हित हरि
और ध्वंस हित सम्भु रूप धरतर है।
प्राण रूप से जीव जगत में
जो निवास करता है,
वही सृष्टि सन्तुलन हेतु
बन मृत्यु वास करता है।
प्रवहमान है वही
वायु के तीव्र मन्द झोकों में,
जल प्रवाह में, कल-कल ध्वनि में
सागर में, स्त्रोतों में,
ऊष्मा और प्रकाश अग्नि में
गन्ध रूप चन्दन में,
कली-कली में फूल-फूल में
अंग-अंग उपवन में-
बस हुई चेतना
एक बसी अक्षर अखिलेश्वर की
होकर एक अनेक रूप में
लीला परमेश्वर की।
एक कामना हो बस
मुझ पर दया करो प्रभु! मेरे,
जीवन की रागिनी
मधुर हो मन से दूर अँधेरे।
जो केवल अपने हित
जग में जीकर मर जाते हैं,
वह न कभी होकर
वरेण्य रंचक भी यश पाते हैं;
और लोकहित में
जो अपना जीवन व्यय करते हैं
काल और इतिहास
उसी की सस्वर जय करते हैं।
कहाँ रंच सुख मिला
किसी को ग्रहण और संचय में
सुख का अक्षर मूल
त्याग, परहित में है निज व्यय में।
स्ंचित होकर, पुण्य
शताधिक जन्मों का मिलता है
ब्रह्मज्ञान-रूप-अम्बुज
तब उर सुर में खिलता है।
हर्ष-विषाद छोड़
मन-मन्दिर छवि नवीन है पाता,
जीवन का उद्देश्य
जानकर नव जीवन पा जाता।
जल उठती है ज्योति
ज्ञान की जलती ही रहती है
जबकि निरन्तर अन्धकार
के भी प्रहार सहती है।
कितने कंटक प्रखर
पंथ पर आते हैं जाते हैं,
किन्तु लक्ष्य के आराधक को
रोक नहीं पाते हैं।
सिन्धु मिलन के लिए
धार नदिया की ज्यों बढ़ती है
कभी लौट फिर नहीं
हिमालय की देहरी चढ़ती है।
ऊँचा नीचा पंथ
रेत पत्थर अनन्त बाधाएँ
करती हुई पार सबको
आगे बढ़ती धाराएँ।
अपने साथ कलुष
जगती का भी लेकर जाती हैं
करती हुई लोकहित
नदियाँ माता कहलाती हैं।
जगड्वाल में चंचल मन
हरपल नाचा करता है,
इधर उधर सुख की
तलाश में फिरता है डरता है;
किन्तु तृप्ति का सुधाकलश
पाता न कभी जीवन में,
रह जाता है अन्तहीन
कामना सहेजे मन में।
जब तक मुक्त नहीं होता
मन संस्कारों के वन से
तब तक कहाँ समृद्ध
हो सका अक्षर जीवन धन से?
जब विचार संस्कार
कर्म मिल धर्म वरण करते हैं
तब सुख दुख दोनों
की पीड़ा सहज हरण करते हैं।
भर जाती है दिव्य चेतना
माटी के इस तन में,
चिर निवास आनन्द
निवसता सदा-सदा फिर मन में।
चिदानन्द माधुरी
एक क्षण कम न कभी होती है,
भौतिकता नर्त्तकी
विवश हो दूर खड़ी रोती है।
जगत पूज्य सुपुनीत
सत्स सेवा ही धर्म सरस है,
जिससे रक्षित मानवता का
पावन ज्योति कलश है।
उस अखण्ड अविनाश्सी को
केवल वह ही पाता है
जो उसके द्वारा
प्रसन्न हो स्वीकारा जाता है।
अगणित साधन जुटें
परिश्रम अथक प्रयत्न अमित हों
पुण्यों के भण्डार
भले ही जन्मों के संचित हों,
किन्तु न जब तक
कृपा सिन्धु का कृपा-बिन्दु मिलता है,
तब तक कहाँ हृदय सर में
आनन्द कमल खिलता है।
कृपा सिन्धु जीवन को
करता पार लोक सागर से,
फिर न डूबते बीच भंवर में
पुण्य, पाप आगर से।
मन की ज्योति
अखण्ड ज्योति को जब तक देख न लेती,
तब तक ही वह ध्यान
जगत-उड्गन पर फिर-फिर देती।
नचिकेता! सद्गुरु की महिमा
अक्षर अविनाशी है।
सद्गुरु देह नहीं
देही है जो घट-घट वासी है।
गुरुमय जगत-जगत सब
गुरुमय जब लगने लगता है,
फिर व्यवहार जगत का मन को
कभी नहीं ठगता है।
गुरु से पाकर ज्ञान
जीव समदर्शी पण्डित होता,
पाता जो आनन्द अखण्डित
कभी न खण्डित होता।
अन्तर्जाल नहीं बन पाता
जगतजाल दुखदायी,
ऐसी कुछ पवित्र महिमा
मैंने है गुरु की पायी।
जर्जर चट पट माया के
संस्कार हरता है
खींच तमोदधि से
जीवन को आलोकित करता है। "
पहले करता रिक्त मनस
फिर दिव्य-रत्न भरता है
जीवन में जीवन रस को
सद्गुरु ही संरचरता है।
ब्रह्म जीव के बीच
झूठ की सत्ता बहुत बड़ी है,
सहज खींचने वाली मन को
ज्यों जादुई छड़ी है।
जिधर देखिए उधर
दृष्टि अटकाने को आतुर है,
नहीं धरा ही जिस पर
लट्टू अक्षर वर सुरपुर है।
चातुर्दिक फल ही फल जग के
मन को खींच रहे हैं,
अपने रस से जाने अनजाने
ही सींच रहे हैं।
निपट अबोध हाय! मन-पंछी
लिप्सा-रोग ग्रसित है।
बिना बिचारे ही खाता
फिर होता घोर त्रसित है।
गुरु के ज्ञान बिना जिसने भी
सांसारिक फल खाया,
पाकर घोर दुःख वसुधा पर
जीवनभर पछताया।
जब होती गुरु कृपा
कुमति हो नष्ट, सुमति जगती है,
त्याग स्वार्थ दुर्भाव
सहज ही परहित में लगती है।
जो फल अनायास
खाने से दुख अपार देते हैं
गुरु आज्ञा से वही
स्वस्थ तन, मन सुधार देते हैं।
करते ही गुरु शुभस्मरण
माधुर्य उमड़ पड़ता है,
दोष नष्ट हो जाते
गुण घ्न घहर-घुमड़ पड़ता है।
श्री गुरुचरण कमल
पावन जब उर में बस जाते हैं
बाधाओं के भट समूह
नतमस्तक हो जाते हैं।
करते हैं सहयोग
त्यागकर असहयोग की कारा,
ज्योतिर्मय हो स्वयं
बहाते नव प्रकाश की धारा;
किन्तु कहाँ गुरुकृपा
जगत में सबको मिल पाती है,
जिसको मलिती उसकी
जीवन ज्योति जगमगाती है।
गुरु बिन ज्ञान,
ज्ञान बिन ईश्वर किसको मिल पाया है?
ईश्वर के बिन कहाँ
जीव में धर्म रंच आया है?
बिना धर्म के जीव
कहाँ सेवा कुछ कर पाता है?
सेवा बिना अहं का पर्वत
कहाँ बिखर पाता है?
जब तक अहंकार का
ताना-बाना नहीं जलेगा
तब तक सद्गुरु-
कृपा कमल जीवन में नहीं खिलेगा।
सद्गुरु ईश्वर
दोनों की ही कृपा अभेदमयी है,
जिसे प्राप्त हो जाये
उसकी महिमा काल जयी है।
तत्वरूप दोनों समान हैं
सगुण एक निर्गुण हैं
दोनों ही अक्षर अनन्त
अनवद्य दिव्य अक्षुण हैं।
गुरु अनन्त हैं वसुन्धरा पर
पर गुरु ज्ञान नहीं है,
गुरुओं को अपनी गुरुता
की खुद पहचान नहीं है।
सुन्दर वेश मनोगति
लेकिन हाय! कर्मनाशा है,
ऐसे गुरुओं से मनुष्य
कर रहा व्यर्थ आशा है।
सूक्ष्म शक्ति अन्तस की जब
उन्नत विस्तृत होती है
कण कण में बस एक
परासत्ता भासित होती है।
सूर्यचन्द्र, आकाश
जगमगाता तारों का मण्डल
पर्वत, नदी, धरा,
वन-उपवन-दिग्दिगन्त परमोज्ज्वल;
सब उसके ही रूप
सभी में वह निवास करता है,
प्रखर काल की गति पर
केवल वही रास करता है।
कोई ठहर न पाता पलभर
जिसकी गति के आगे
दया की भिक्षा उससे भागे।
घट-घट में प्रतिबिम्ब
स्वयं का ही जब आ जाता है,
बैर भाव मन का
अपने ही आप चला जाता है।
मूल पाप का क्रोध
गलित होता भीतर ही भीतर
सहिष्णुता का भाव परम
जगकर हो जाता अक्षर।
उदारता नम्रता बिहँसती
हैं फिर दाँयें-बाँयें,
स्वार्थ-अग्नि हो शान्त
मनस में शीतलता छा जाये।
धीरे-धीरे अपनापन
जा रहा खिसकता मन से
ब्रह्म ज्योति आवृत्त हो रही
भौतिक भोग सघन से।
गंधहीन पाटल
ज्यों भोले मन को ठग लेता है,
दर्शनीय त्यों ही सुवेश
जीवन को ठग लेता है।
जो उत्फुल्ल गुलाब
रूप रस लगता है अक्षर-सा
होकर अचिर हाय!
क्षणभर भासित है चिर सुन्दर-सा।
हटा चिरन्तन का चिन्तन
मन में निज गंध भरेगा
माया के पट विकट
बन्द कर नर्तन नग्न करेगा।
जीवन को माटी कर
खुद भी हो जायेगा माटी,
चली आ रही यही
मही पर युग-युग से परिपाटी.
उन्नति अवनति
साथ-साथ ही जग में सदा पली है।
दोनों की वल्लरी
साथ ही फूली और फली है।
कहीं सुमति का
कहीं कुमति का रहा बोलबोला है।
एक अमृत की धार
एक विष मिली हुई हाला है।
दोनों दोनों का
विरोध करती है झुँझलाती है,
किन्तु सत्य सम्बलित
सुमति जय मन को दिलवाती है।
सुमति सत्य रस से सिंचित
हो धीरे-धीरे बढ़ती,
एक-एक सोपान प्रगति का
वर्षों में है चढ़ती।
बनकर ज्योति अखण्ड एक
ज्योतित करती है जीवन
बिखरती आलोक शुभ्र
जगमग होता अन्तर्मन।
सचराचर ब्रह्माण्ड
दृष्टि में जो कुछ भी आता है
भौतिक रूप् सभी कुछ
ईश्वर का ही कहलाता है।
सबमें ईश्वर व्याप्त
न उससे कुछ भी विलग बना है,
जग में ईश्वर
ईश्वर में जग जीवन जाल घना है।
मात्र आत्म कल्याण
लोक में सुयश नहीं पाता है,
जीव-जीव के लिए
जिये तो जीवन सज जाता है।
नित एकान्त वास,
तप साधन, प्रखर शक्ति संचित हो,
आतम ान से
उर मन्दिर का कण-कण अभिसिंचित हो,
अक्षर सुधाधार से
जीवन ज्योति सहज मण्डित हो,
स्वर्ग और अपवर्ग
भले ही चरणों पर नर्त्तित हो,
जीवन की साधना
न यदि जीवन का हित कर पाये,
वह साधना ज्योति
निन्दित है जलने से, बुझ जाये।
वह भी कैसा दीप
न जिसने तम से युद्ध किया हो,
शुद्ध रश्मियों से जीवन
परिवेश न शुद्ध किया हो,
उससे धन्य दिया माटी का
तनिक स्नेह लेता है,
स्वयं पान कर अग्नि
हमें शीतल प्रकाश देता है।
गिरा शक्ति का जब
प्रयोग हम उचित न कर पाते हैं
वाणी से सौंदर्य सत्य
माधुर्य निकल जाते हैं।
निष्प्रभ हो वाणी
विचार को सजा नहीं पाती है
हतभागिनी सदृश
व्याकुल होती है पछताती है।
जो ईश्वर को सतत
संग में मान मनन करता है
निरासक्त होकर
कर्तव्यों का चिन्तन करता है।
विषय भोग जिसके
केवल कर्तव्यों तक सीमित है
परमतत्व को वही
पा सकेगा जग में, निश्चित है।
यों तो जीवन ज्योति
धरा पर जगती है बुझती है
रोती भी है कभी
कभी तो जीवन भर हँसती है।
कभी-कभी हँसने
की बेला आँसू बन जाती है
कभी रुदन की घड़ी
हास की छवि नूतन पाती है।
यह रहस्य जीवन का
कोई नहीं समझ पाया है
पूर्व कर्म का मधुर तिक्त
फल कब का कब पाया है?
पुण्य-पाप जाने अनजाने
में भी हो जाते हैं,
और अदृश्य काल-जंगल
में छिपकर खो जाते हैं।
पाकर समय फलित होते हैं
दोनों ही जीवन में,
होकर ममता रहित हाय!
सुख दुख बन जाते क्षण में।
क्षणिक मोह के कारण
सुख-दुख लगते अलग-अलग हैं,
जबकि काल पट पर
दोनों ही तिलभर नहीं विलग हैं।
सुख-दुख का आभास
जीव की जड़ता का कारण है,
आत्मतत्व का बोध-
मात्र ही इसका निस्तारण है।
निज स्वरूप में मन का
जब तक वेग न रुक जाता है,
तब तक इन्द्रिय जगत
शून्य हो शान्ति नहीं पाता है।
धीरे-धीरे भीतर-बाहर
का प्रकाश सम होता
अपनी गहरी दिव्य धार
में मन को खूब डुबोता
मन, पाकर आनन्द
सुखों के स्वप्न भूल जाता है,
अकथनीय के लिए
कथन कोई न दृष्टि आता है।
इन्द्री मन में,
मन प्रज्ञा में, प्रज्ञा को आत्मा में
और आत्मा का जब
लय हो जाये परमात्मा में,
तब हो मुक्त जीव
अक्षर आनन्द अमित पाता है,
मोहावरण तोड़
जगती के पार निकल जाता है।
मृत्युदेव ने नचिकेता को
अक्षर ज्ञान दिया है,
दैव कृपा ने मुझको भी
सौभाग्य प्रदान किया है।
सुनकर तत्वज्ञान
हृदय में मंगल दीप जले हैं,
मन-अम्बर पर
घिरे विकारों के घन भाग चले हैं।
धन्य-धन्य नचिकेता!
तेरा साहस धन्य परम है,
मानवता के आँगन में
जिज्ञासु न तेरे सम है।
बाहर जीवन धार
हृदय में परमानन्दरता हूँ।
मैं चंचला मीन होकर भी
हुई समाधिगता हूँ।
हे जीवन किरीट!
जीवन तट पर वन्दन करती हूँ।
चंचलता को त्याग
आपका अभिनन्दन करती हूँ।