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बुतपरस्ती / अंचित

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देखिये पाते हैं उश्शाक बुतों से क्या फैज़
एक बरहमन ने कहा है ये साल अच्छा है।
-असद

दुख बढ़ जाए
कंधे डूबने लगें,
संभव हो तो तिनका ढूँढें,
जितनी जल्दी-अच्छा होगा।

यह भागना नहीं-
नीति निर्धारण है
कि दुख से घुटते हुए
सांस थमती नहीं-सिर्फ़ भारी होती है।
बढ़ जाती है फेफड़ों की मेहनत।

बीता हुआ
एक देश हो जाता हूँ
तब।

छिपकली की तरह जागता हुआ
 नींद की दीवार पर।

अगढ़ खोदता है
लम्बी गहरी सुरंगें
वक्त में।

गाडी का वाइपर
धुंध साफ़ करता है।
कुछ लगी रह जाती है।

सपनों को
उम्र की सीलन के चलते
दीमक लग जाती है।

अकेलापन
अँधेरे की बारिश में
जल रहा एकलौता बल्ब।
उसके हासिल ना कुछ
ना कोई मानी-
बस तुम्हारी देह तक पहुँच पाने का
इकलौता नक्शा।

उम्मीद
सरसों का खेत है।
एक दाना सब रस बेध सकता है।

मुझे भूल जाने के बाद भी
 तुम पुकारती हो
 कई-कई रात।

उजड़ जाता है सब
 पास आते आते।