भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पिता के लिए / मुक्ता
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:15, 2 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुक्ता |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <po...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
वे समझने लगीं हैं अग्नि और अग्नि का अंतर
वे दान कर रहीं हैं अंगूठा पिता के लिये
वे देखती रहीं हैं माँओं के सिंधोरे पिता की अर्थी पर
अग्नि की साक्षी में विगलित देह पिता की
पात-पात झरता उद्दीपन
रोम-रोम पिघलता ताप
पिता... पिता नहीं, जल हो गये।
पिता... पिता नहीं, वायु हो गये।
थिर स्तंभन में कहीं बिंधा है सिर एकलव्य का।