भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्त्रीवाची सूर्य / मुक्ता
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:16, 2 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुक्ता |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <po...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
वह औरत कभी शामिल नहीं की गई उत्सवों में, ऋचाओं में
वहाँ हो रही थी संगठित और मजबूत होने की बड़ी-बड़ी तैयारियाँ
वह औरत कहीं भी शामिल नहीं थी उन आयोजनों में
वह औरत कभी कोई गीत नहीं गुनगुना पाई आजादी के
सुबह सवेरे उसके चेहरे पर होती है अनोखी चमक
जिसका संबंध सूरज से नहीं उसके अपने श्रम से है
पृथ्वी उसकी उँगलियों से सीखती है ककहरा
साहित्य और कला के तमाम अनुशाशनों में उस औरत के मांसल चित्र हैं
उसके हाथों में उगे होते हैं नागफनी, इन चित्रों में रंग भरते हुए
वह औरत उलटती है ऐसे सभी चित्रों को
उसकी गर्वीली हँसी भेजती हैं लानतें गुलाम नायिकाओं पर
वह औरत बढ़ रही है नए संशब्द की ओर
वह खोल सकती है ब्रह्मांड के अर्थ
उसके माथे पर दमकने लगा है स्त्रीवाची सूर्य