भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूरज का गोला जब सिंधु में पिघलता है / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:17, 3 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=रौश...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सूरज का गोला जब सिन्धु में पिघलता है
रोज शाम ढलते ही चन्द्रमा निकलता है

अपने कब लोग हुए ठेल कर निकल जाते
पग सँभाल रखता जो वो नहीं फिसलता है

लोग कह गये हैं कब इश्क़ की डगर आसां
पाँव जो बढ़ाता है आग पर वो चलता है

रात है घनी काली डर न तू अँधेरों से
दीप एक बुझता है तो नवीन जलता है

झेलना जरूरी है वर्तमान की पीड़ा
ख़्वाब के खिलौनों से दिल नहीं बहलता है

एक बार किस्मत भी द्वार खोल है देती
हर किसी को ये मौका रोज़ कहाँ मिलता है

जो नसीब से पाया व्यर्थ मत गंवा देना
वक्त का भरोसा क्या करवटें बदलता है