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अँधेरी निशा में घने बादलों से / रंजना वर्मा

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अँधेरी निशा में घने बादलों से लिपट कर कहीं चाँदनी सो रही है
छुपा चाँद जाने कहाँ किस गली में भरी धुन्ध से यामिनी हो रही है

उड़ाने चली स्वप्न के बादलों को मगर वो उसे तो उड़ाने न पायी
भरी हार से जो पवन डोलती है चमन में बड़ी अनमनी हो रही है

घटा चूनरी में सितारे समेटे लगी सौंपने है निशा बावरी को
फटी चीर से सब झलकने लगे हैं चमक हीरकों की कनी हो रही है

कभी दौड़ जाती कभी लौट आती अजब हाल है काँपतीं बिजलियों का
कहीं छूट जाये न आँचल गगन का विकल खूब सौदामिनी हो रही है

बड़े वेग से चल रही हैं हवायें लगे काँपने उर विरह - पीड़ितों के
कहीं थम न जायें हृदय धड़कनें भी न जाने ये क्या सनसनी हो रही है

धरा से गगन तक रही गूँजती जो करुण गीत की क्या लड़ी थी वो' कोई
दसो दिशि हुई व्याप्त धुन वेदना की मगर आजकल अनसुनी हो गयी है

गहन शीत चारो तरफ छा रहा है सिहरने लगीं ठंढ से सब दिशायें
वही शीतता साँस में जब भरी तो हृदय कक्ष जा गुनगुनी हो रही है