भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाल सहरा पे डाले गये / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:42, 4 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=पूँजी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाल सहरा पे डाले गये।
यूँ समंदर खँगाले गये।

रेत में धर पकड़ सीपियाँ,
मीन सारी बचा ले गये।

जो जमीं ले गए हैं वही,
सूर्य, बादल, हवा ले गये।

सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ,
वक़्त पर जो झुका ले गये।

मैं चला जब तो चलता गया,
फूट कर ख़ुद ही छाले गये।

ख़ुद को मालिक समझते थे वो,
अंत में जो निकाले गये।