भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

था हरा और भरा साँवला कोयला / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:46, 4 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='सज्जन' धर्मेन्द्र |संग्रह=पूँजी...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

था हरा और भरा साँवला कोयला।
हाँ कभी पेड़ था, साँवला कोयला।

वक्त से जंग लड़ता रहा रात दिन,
इसलिए हो गया साँवला, कोयला।

चन्द हीरे चमकते रहें इसलिये,
ज़िंदगी भर जला साँवला कोयला।

खा के ठंडी हवा जेठ भर हम जिये,
जल के बिजली बना साँवला कोयला।

हाथ सेंका किये हम सभी ठंड भर,
और जलता रहा साँवला कोयला।

चंद वर्षों में ये ख़त्म होने को है,
ऐसे लूटा गया साँवला कोयला।