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बसन्त / ब्रजमोहन पाण्डेय 'नलिन'

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बीत गेल पतझर के मउसम रितु बसन्त हे आयल।
फेंड़न के डँउघी पर मातल कूक रहल हे कोयल॥
सोह रहल लाली भर लुहलुह हर मुठान के कोंपल।
मलय पवन सँग नाच रहल कलि बाँध भवँर के पायल।
सरसों के साड़ी में सुत्थर जड़ी नखत के काढ़ल।
चम्पा कनेर तीसी गुलाब के टहटह गोटा पोहल॥
पहनावे धरती के बुलबुल गहना कुसुम चढ़ावे।
नव सिरीस के झुमका देके सेवल-चिकुर मढ़ावे॥
लगनउती धरती दुलहिन के प्रिय बसन्त दुलहा से।
गेठँ जोड़ भाँवर दिलवावे कीर-पुरोहित मन से।
नव परास सेनुर से सोहे भरल माँग धरती के।
छितरायल सोभा हे सगरो खिलल धरा जगती के॥
ले उपहार किरिन के ऊसा पूरब में मुसकावे।
सरसी में जागल सरोजिनी के सूरज दुलरावे॥
झूमर गीत नचारी गूँजे वन वन में उपवन में।
अनुखन रेघ मिला के गावे चहक चिरइँयन मन में॥
रंग-बिरंगा तितली उड़के सुभ-अभिसेक सुनावे।
कुँजन के मड़चा में मनहर पुहुप-नीर बरसावे॥