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इन दिनों / रामदरश मिश्र

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समय का जल बहता जा रहा है
निष्क्रिय सा किनारे बैठा हुआ
देख रहा हूँ उसका यों आना-जाना
कितना दुखद लगता है समय में होकर भी न होना
सोचता ही रह जाता हूँ-कुछ करूँ, कुछ करूँ
फोन की घंटी बजती है-
”कैसे हैं आप?“
पूछने का प्रयोजन जानते हुए भी कहता हूँ-
”ठीक हूँ“
आखि़र किस-किस से अपनी तकलीफ़ की कहानी कहूँ
”तो बात यह है श्रीमान् कि
इस तीस तारीख़ को मेरी पुस्तक पर गोष्ठी है
कृपया अध्यक्षता कर दीजिए“
फिर तो अपने अप्रसन्न स्वास्थ्य की दुहाई देनी ही पड़ती
”कोई बात नहीं, तब तक आप स्वस्थ हो जाएँगे।“
और वे हर दो दिन बाद पूछते हैं-
”अब कैसे हैं?“
फिर फोन की घंटी बजती है
”महीना भर पहले अपनी पुस्तक भेजी थी
आपने उस पर कुछ लिखा क्यों नहीं?“
फिर घंटी
”अपनी कुछ चुनी हुई कविताएँ भेजी थीं
भूमिका लिखने के लिए, उसका क्या हुआ?“

हर तीसरे-चौथे दिन एक पुस्तक आती है
‘समीक्षार्थ’ आदेश के साथ
और महीना भर बाद तकाज़ा पीछा करता है
मैं तो अपनी वय-जन्य
और कुछ शारीरिक तकलीफ़ें लिए हुए
बंद कमरे में पड़ा हुआ हूँ
घर की समस्याओं से निश्चिंत सा
हाँ, खिड़कियाँ खुली हुई हैं
ताकि बाहर की हवाएँ आती रहें-
मेरी सर्जना के लिए कुछ न कुछ लेकर
लेकिन इन तकाज़ों का क्या करूँ
जो इन खुली खिड़कियों से आ आ कर
मुझे चिकोटते रहते हैं
जो भी हो, खिड़कियाँ बंद नहीं कर सकता
वे ही बाहर-भीतर के बीच सेतु बनी हुई हैं।
-26.9.2013