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शिखर से शिखर तक / रामदरश मिश्र

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1.

मंच पर उपस्थित एक लेखक के बारे में
दूसरे लेखक ने कहा-
ये महान लेखक हैं
इनकी यात्रा शिखर से शिखर तक होती है
मुझे याद आ गया
अपनी किशोरावस्था का एक प्रसंग
कुंभ नहाकर ट्रेन से लौट रहा था तो
रास्ते में सारनाथ पड़ा
मैंने साथ बैठे अपने पड़ोसी मास्टर जी से पूछा-
”ये जो दो बड़े-बड़े स्तंभ दिखाई दे रहे हैं
वे क्या हैं?“
”ये?“
उन्होंने कहा-
”अरे ये तो लोरिक की कुदान हैं
लोरिक इस खंभे से उस खंभे तक
कूदता था-
हाथ में दूध की बाल्टी लिए हुए“
उस समय मैं क्या कहता
बस पेड़ की एक ऊँची डाल से
दूसरी ऊँची डाल पर कूदता हुआ
बंदर याद आ गया

आज इस महान लेखक को देख रहा हूँ
तो लगता है लोरिक खड़ा है।
-1.11.2013

2.

प्रभु
आप सचमुच महान् लेखक हैं
शिखर से शिखर तक की यात्रा करते हैं
इसीलिए कभी-कभी काफी दिनों तक
चुप रहते हैं
यानी तैयारी करते रहते हैं
दूसरे शिखर पर जाने की
हम तो सामान्य लेखक हैं प्रभु
निरंतर चलते रहते हैं-
ज़मीन पर, खेतों में, घाटियों में, जंगलों में
कभी पहाड़ की टेढ़ी-मेढ़ी पथरीली पगडंडियों पर
रास्ते के नदी-नालों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों
और छोटे-छोटे घरों से बतियाते चलते हैं
तो कभी हम
पहाड़ की कुछ ऊँचाई तक पहुँच जाते हैं
कभी किसी पड़ाव पर ठहर जाते हैं
कभी किसी पटपर पर घूमने लगते हैं
हमारी चिंता यह नहीं होती कि
हम कितनी ऊँचाई तक पहुँचे
हमारी चिंता यह जानने की होती है कि
हम जहाँ तक चल सके हैं
उसकी दुनिया
हमारी अपनी बन सकी है न!
3.11.2013