होली / रामदरश मिश्र
होली एक दिन का त्योहार नहीं है
वह उत्सव की एक ऋतु है
फागुन चढ़ते ही
वह व्याप्त होने लगती है परिवेश में
खेतों में फसलें पकने लगती हैं
और वे अन्न की चमक भर देती हैं
अभाव से लदी उदास आँखों में
वह चमक कंठों में फाग बनकर उमड़ने लगती है
गाँव की गलियों में, ओसारों में, राहों पर
हवाओं में एक नई उष्मा जाग जाती है
और वे राहों को बुहारने लगती हैं
राहें रंग-भीगे राहियों से जगमगने लगती हैं
पेड़ पुराने पत्ते झाड़कर अपने को तैयार करने लगते हैं नये पत्तों के लिए
प्रकृति में गूँजने लगता है नव सृजन-राग
महीने भर की उमंग पुंजीभूत हो जाती है होली में
होली जलती है
यानी समय का जीर्ण शीर्ण जलता है
होली खेली जाती है
यानी नये समय के स्वागत में
आदमी अपने को रंगमय कर लेता है
टूट जाती है आदमी-आदमी के बीच की दीवारें
और आदमी केवल आदमी रह जाता है
प्यार में नहाया हुआ...
मुझे बचपन से ही बड़ा प्यार रहा है होली से
वह जब जाने लगती है
तब मन चुपचाप उससे कहता है
जल्दी आना मेरी प्यारी ऋतु
-22.2.2014