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दिल्ली में गाँव लिए / रामदरश मिश्र

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‘क’ और ‘ख’ गहरे दोस्त थे
दोनों एक ही गाँव की मिट्टी में
खेले थे साथ-साथ
दोनों में गाँव का उल्लास हँसता था, दुख रोता था
दोनों की आँखों में ऋतुओं और त्योहारों की रंगतें तैरती थीं-
उषा की लाली की तरह
दोनों बाज़ारों और मेलों के प्रिय जनरव से
गुज़रते थे साथ-साथ
दोनों साथ-साथ पढ़े थे
गाँव से लेकर दूर-दूर के विद्यालयों में
दोनों के नंगे पांवों में
खुरदरी लंबी, दूरियाँ समाई हुई थीं
दोनों के सिरों पर
सीधा-पिसान की गठरियाँ लदी होती थी

दोनों एक दिन दिल्ली में आ गये-
अच्छे भविष्य की तलाश में
शुरू-शुरू में दिल्ली के परायेपन के दर्द ने
दोनों को और गहरे जोड़ दिया
लेकिन ‘ख’ को धीरे-धीरे लगने लगा कि
उससे ‘क’ का लगाव
ठंडा पड़ता जा रहा है
वह दिल्ली में
उन दोस्तों की तलाश में है
जो ठेठ दिल्ली के हैं
या गाँव से आकर
दिल्ली के होकर रह गये हैं
‘ख’ को लगने लगा कि अब
‘क’ की कविताओं से गाँव बाहर हो रहा है
और वह आधुनिक बनने की प्यास लिये हुए
न जाने क्या-क्या लिख रहा है-
यांत्रिक भाषा-शैली में
और ऐसा लिखने वालों की एक चालाक जमात में
शामिल हो गया है विशेष सदस्य के रूप में

‘ख’ सोचता है वह तो
गाँव से दूर होकर और पास हो गया है
गाँव के बिम्ब
और भी सघनता से आने लगे हैं-
उसकी कविताओं में
वह कभी-कभी अपने पर हँसता है-
अरे बावला
तेरा दोस्त तो गाँव को भूलकर
महानगरी फार्मूलों के सहारे
अंतरराष्ट्रीय हो गया
और तू अभी भी
दिल्ली में गाँव लिये बैठा हुआ है।
-20.7.2014