भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लमहे / रामदरश मिश्र

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:37, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामदरश मिश्र |अनुवादक= |संग्रह=मै...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने कभी महान कार्य के लिए
महान समय की प्रतीक्षा नहीं की
मैं तो धीरे-धीरे लमहों के साथ चलता रहा
लमहे मुझमें
मैं लमहों में ढलता रहा
महान समय तो चले जाते हैं
अपना महान प्रकाश फैला कर
पीछे छूट जाता है एक सन्नाटा
मेरे भीतर के अँधेरे में
लमहे जगमगा रहें हैं जुगनुओं की तरह
और धीरे-धीरे एक गूँज तैर रही है।
-20.9.2014