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कैमरा / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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साथ में और कुछ नहीं
केवल एक कैमरा
पॉवरफुल लैंस का, मैं साथ लाया हूँ-बस।
बराबर चल रहा है, चलता रहता है वह-ऑटोमेटिक-
प्रत्येक क्षण, क्षण के भी क्षण, चला रहा है-
‘क्लिक्’

सप्राईज़ स्नैप्स जाने कितने चेहरों
मुखौटों के ले लिए गए हैं इससे।
गिरगिटिया आँखों के शेड्स को कैच करने में
यह बड़ा फुर्तीला है-
साँप को ओर लपकते नेवले-सा।
और हाँ-
उतरते चेहरों, ढलती जवानियों, भग्न मोतियों
और बबूल वनों की आहों से यह
जल्द धुँधिया जाता है।
कैमरा यह मेरा-
मरुस्थलों में
अस्ताचलगामी सूर्य की अंतिम स्वर्णाभा में रंेगती
ऊँटों की लम्बी छायाओं-सी निर्जन उजाड़ साँसों के
डिटेल बड़े साफ देता है।
बुदबुदाते होंठों के पीछे
कसमसाती जीवन-गाथाओं को
बड़ क़रीने से अपने फ़ोकस में लेता है इसका लेंस
और शून्य पवन की सनक को समर्पित
धूएँ की लहरों-जैसे
असहाय जीवनों और मनों की तसवीरें
यह बहुत साफ लेता है
घड़ी की बढ़िया मशीनरी-जैसे मस्तिष्क
में चलती योजना को
यह दूर से ही सूँघ लेता है।
अनजाने में न जाने कितने नक़ाबदार चेहरे
‘कैच’ कर लिए गए हैं इसमें आज तक-
अपने लैंस में-
क्लिक्-क्लिक्।
व्हाइट कॉलर्स इसमें आते हैं-
कौए की चोंच जैसे-
‘क्लिक्’