ओ निगोड़े चाँद!
तू विलासवतियों की चूड़ियों की खनन्-खनन् में-
रूपसियों के पायलों के रुनझुन का अंगराग-
घोल-घोल पी!
जूही-वनों में मुसकराती कान्ताओं के
मुक्तादन्तो पर कौंध!
नील कमलों वाले सरोवरों की-
लजवन्ती तरंगों के जी में डाल!
ढलती रातों की दूरागत वंशी-ध्वनियों में तू
नितम्बिनियों की तगड़ियों में जड़े हीरों की
मनोग्रंथियों को खोल!
पैंगें भरतीं गुदगुदारी गोरटियों के कलकंठों से
गीतों को खोद-खोद कर डाल!
विरहिणी कामिनियों के कलेजे को
तारों-भरे आकाश-सी छलनी बना डाल!
मेहँदी-चित्रों से गूँजती
अनूठी रात की सुरभित हथेलियों को
अनुराग से उबाल दे!
पर, हे रजनीकान्त!
ओ रे करुणाकर-
बस, तू ग्रीष्म की रातों में सूखी-सूनी नदियों के तीर-
सुधियों में लीन-
गत-वैभव राजमहलों के नीरव-निर्जन खण्डहरों पर
न चमक!
न चमक!!