भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुझूँगा, मैं अंगार / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:01, 12 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण' |अनुव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खनकीली स्वर्ण-चूड़ियों से वलयित
खराद-चढ़ी कलाइयों वाले हाथों में पकड़े चिमटे-से,
कोमल कपोल-पाली वाली,
मादक अपांग वाली
कोई कमनीया
सिगड़ी में से, एक दहकते अंगार को-
रसोई हो चुकने पर
धोवन के पानी में
लापरवाही से यों ही, बस यों ही चुमार देती है-
छन्न...न्न...न्न...
(कि बुझे कोयले कल फिरकाम आयेंगे)!

रूप के न जाने कौन से अनचीन्हे
सहज-हँसते, लोने, दिशाहीन हाथ-
सुझ लहकते तरुण अंगार को
एक दिन मरण-अंधार में
डुबो जायेंगे-
पीछे छोड़ते हुए एक आवाज-
बची-रहती एक आवाज-
छन्न...न्न...न्न...

जो सृष्टि-काल तक
झींगुरों की सीत्कार...फनकार में
लुढ़कती चली जायगी... चली जायगी... चली जायगी
पीछे नायलनिया कोई भीनी गंध छोड़ती-सी
किसी स्मृतिवान् की
सजल-कोमल पलकें झँपाने के लिए!