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मुक्तक / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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देख चुका हूँ नील कमल पर
इन्दु-रश्मियों के चित्रांकन;
बुझती बाती से निकली अब
निर्बल धम्र-पटलियाँ देखूँ!

कंचन-किरण-जड़े घन वाले
देख चुका सतरँग उदयाचल;
कुचले सपनों की मर्मरयुत
अश्रु-जटित पलकें अब देखूँ!

बोलो संतो, क्या विचार है?
अपनी डिबिया में राई-सी ज्योति बची है,
भूँक रहा काजल-काला सघनान्धकार है,
बोलो संतो, क्या विचार है!

है कहीं मैं-मैं, कहीं तू-तू,
डाल पर है बोलता तोता,
गोद में शिशु बोलता-‘त्या-त्या’,
मंच पर है बोलती तूती!

उस दिन मैंने रूमाल तुम्हारा सूँघ लिया,
खिल पड़ी चाँदनी में ज्यों केसर की बगिया;
मैं सो न सका उस रात, और मैंने जाना-
कैसे जलता है-रेशमा-सा सुकुमार हिया!

विमल रत्न-मुक्ताओं में ज्यों निहित कान्ति की किरणें,
धरती में ज्यों मधुर गंध के छिपे मौन मधु-झरने,
छिपी हृदय के पुण्डरीक में ज्योंकि ज्योति कल्याणी
रहे हमारी साँस-साँस में झंकृत संस्कृत वाणी!

आँधी के झोंको से, ज्यों काँटेदार गुलाबों में-
कोई मलमल का पट जैसे बरझोर उलझ जाये-
मेरा मन, जाने आज कहीं पर उलझा-उलझा-सा!

टकटकी लगा यों क्यों था मुझको देखा,
प्राणों पर क्यों खींची कंचन की रेखा!

जिनकी पगडंडी पर सावन-भादों की अँधियारी हो-
उनकी पगतलियों को चूमें किरणें मेरे दीप की!

पीछे भीड़ बहुत है, आगे बढ़ो जरा,
दूर क्षितिज तक फैली कितनी वसुन्धरा,
दाएँ-बाएँ-नदियाँ; दीपशिखा-ऊपर;
मानव मार्ग अनन्त-न चौड़ा या सँकरा!

हरिण-चरण ले, और बजाता अलगोजा, मधु-स्मिति का मारा-
भटक रहा मैं कब से तेरे रूप-जंगलों का बनजारा!

धरती पर न अगर कवि होता-
कौन बहाता रस का सोता?
मानव को आश्वासन देती मर्त्य जगत् में किसकी वाणी?
कवि-जग में चिरचेतन प्राणी!

इस धरती पर मानव के हित सुख के सब सामान रहें,
पीने को मधु, खाने को मृदु भोजन सुधा-समान रहंे,
रहने को हों नूपुर-झंकृत भव्य भवन अम्बर-चुम्बी,
मरघट है जम, यदि न यहाँ पर कवि औ कवि के गान रहें!

सपने मेरे-स्वर्ण बदलियाँ,
अभिलाषाएँ-रूप तितलियाँ;
स्वर-शशि-किरण-विचुम्बित निर्झर,
सुधियाअ सोनजुही-सी मेरी-
पर, काया-माटी की ढेरी!

सोच रही है तिमिर-कुंज में बैठ अकेली-
दीपशिखा (देवों की स्वर्णिम प्रिया नवेली)-
‘‘आह, सृष्टि ने युग-युग कितनी विपदा झेली’’

प्राण मेरे बहुत मीठे-
स्नेहियों की चोंच के खाये हुए हैं जो
गान मेरे बहुत पैने
त्यौरियों पर खूब पैनाये हुए हैं जो!

सावन-भादों के घन रिमझिम बरसा करें युगों तक चाहे,
पर दो दाग न धुल पायेंगे-एक चाँद का, दूजा मेरा!

मुहब्बत की बातें करो धीरे-धीरे-
ज्यों लहरें, शरद्-साँझ में झील-तीरे!

हम तो इन्द्रधनुष-से दिल के,
धन-पद सड़े प्याज के छिलके,
रोटी-मट्ठा खा जी लेंगे-
बस बबूल बिरछ के नीचे!

सूरज चाँद, सितारों पर तो मुझे नहीं विश्वास है,
क्योंकि उजाले का यह उद्गम कालतिमिर का ग्रास है;
पंथ सुझावे और राह के रोड़े कर दे भस्म जो-
ऐसी एक अमर ज्वाला है, जो मेरे ही पास है!

कवि देता जग को दान मधुर गीतों का,
वह अपना ही उपचार नहीं कर पाता,
मधु-धार बहाता फिरता सारे जग में-
सुखमय अपना संसार नहीं कर पाता!

फूलों ने सस्मित मुख से अभिनंदन कर
जो भी आया-सब को मधु के घट बाँटे,
पर किसने देखे, बेध रहे जो उसकी-
छाती को अपनी ही डालों के काँटे!

बुझ चुकी है दीप की लौ, पर अभी बाती गरम है,
है न ज्वाला-किन्तु फिर भी दाह मन में कौन कम है!
उठ रहीं आहें अँधेरे में धुएँ की लहरियों-सी,
आह रे, यह जिंदगी की चाह-कितनी बेशरम है!

शीशम के पेड़ों से निकला-पूनम का शशि आधा,
आँख मींचने ज्यों कान्हा की चुप-चुप आई राधा!

इन नयनों के बीच साँवली पुतली है,
जिसके बीचोंबीच नयन का तारा है,-
इस तारे के बीच घनी हरियाली में-
मेरी रूप-किरण, आवास तुम्हारा है!

मेरे सपनों की छींट-बड़ी झीनी है,
मेरी सुधियों की गंध-बड़ी भीली है!

मैं असाढ़ का पहला बादल-
जिसमें गीत, मड़ औ बिजली!
तुम चन्दा पर रल्मल्, हल्की,
झीनी, धवल, उनींदी बदली!

धुआँ, धूल, धुुंध, अँधियारा-
इनका चारों ओर पसारा!
किन्तु, इसी चमक में रहा है-
मेरी आशा का ध्रुव-तारा!

खुले पड़े तारों-भरी अनुभूतियों के कोष-
इसमें क्या गगन का दोष!

मन का दीप जलेगा मन से,
नन्हीं इन्दु की रजत-रश्मि से, नहीं उषा की कनक किरण से!
मन का दीप जलेगा मन से!

आह, यों सुन्दरतम, सुकुमार हृदय का होना ही था ध्वंस!
उजड़ना ही तो था यों हाय, रँगीले सुख-सपनों का वंश!

सूखने पाये नहीं रस प्राण का-
इसलिए मैंने चुना पथ गान का!

प्राण में आया वसन्ती ध्यान-
ज्योंकि चैती चाँदनी में बंसरी की तान!

दुख पी लिया, मुख सी लिया,
बुझ कर सिलहटी हो गया, अंगार-सा जलता हिया!
दुख पी लिया, मुख सी लिया!

कोई ऐसा स्वप्न नयन में-
ज्यों किरणों की स्वर्ण-चाशनी से तर बदली, भोर-गगन में!
कोई ऐसा स्वप्न नयन में!

जला, परन्तु यों जला-न अंग छार हो सके,
गला, परन्तु यों गला-न दीन नैन रो सके,
गुँथा, परन्तु यों गुँथा न अंग हार हो सका,
बजा, परन्तु यों बजा-न तन सितार हो सका!

रजत-शिखर मत मुझे बनाओ उन्नत हिमगिरि का,
कलकल् स्वर में मुझे हिमानी-सा ही बहने दो!

ऐसी ज्वाला जगे कुछ लोहित-
स्वयं उषा हो जिस पर मोहित,
शशि-दर्पण में देख, माँग में रंग भरे जिसका-रतिबाला!
जागो, मेरी जीवन-ज्वाला!

इन्द्र-धनुष का चूर्ण उड़ा आकाश में-
आँधी-सी कुछ निकल गई संगीत की!
याद रही इतनी सी बात अतीत की!

पाँव-तले की भूमि छीन लो, पर मन का विश्वास न छीनो!
झंझाओं में नीड़ उड़ा दो, पर मेरा आकाश न छीनो!

मिल गया है आज मुझको-
इन्द्रधनुषी कल्पनाओं का सुनहला देश;
पाँव धरती पर टिके हैं,
भूमि से बस रह गया सम्बन्ध इतना शेष!

मैं प्रलय की आँधियों में से निकलता चाँद-
मेरा हास तो देखो!
कर न पायेगा कभी भी राहु मेरा ग्रास-
यह विश्वास तो देखो!

कागज़ी इस फूल में मकरन्द लाओ,
जिंदगी के गद्य में कुछ छंद लाओ,
भेज कर सब वायु-यानों को गगन में-
भूमि पर सब स्वर्ग का आनन्द लाओ!

भूल न जाना कमल-कोष सी वह रसवंती रात-
जरी-सी जालीदार, महीन!
भूल न जाना वह असाढ़ की सन्ध्या वाली बात-
हृदय, तुम हो जाओगे दीन!

पूनम की घनघोर चाँदनी में वंशी-ध्वनि-पुलकित,
लता-पता से लदी वसन्ती कश्मीरी घाटी-सी,
काजर-कारी धूम धुँआरी, वे रतनारी आँखें!

मछली की क्रीड़ा-वश उछली तरल विमल लहरों से
रोमांचित-सी, नील कमलिनी-जैसी, मौन, रसीली,
आह, जनम भर भूल सकूँगा- कैसे वे दो आँखें!

छिपा न पाया घन अपने को, कर उट्ठा चीत्कार है-
‘‘मेरी छाती चीर देख लो, मुझे धरा से प्यार है!’’

तुम अनबिँध मोती की आभा- ले आकर, पैंजनी पहने-
आई रुनझुन करती मेरे नयनों के नीलम-आँगन में;
प्राणों की पुखराज, हृदय की हीर-कनी, नयनों की नीलम,
भूल न पायेंगे तुमको हम!

दबा भूमि को रखा चरण तल, कण न हुआ अपना!
अनमाँगे मिल गया-गीत, रस, छंद और सपना!
और कल्पना-लोक-निशा अम्बर से लाख गुना!