कश्मीर की घाटी में / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
(श्रीनगर में लिखी पंक्तियाँ)
अहा, यही है क्या वह अपना-
प्रिय भू-स्वर्ग, रूप का सपना!
मखमल-सा गुलमर्ग मनोहर,
पन्नामणि-सा कान्त कलेवर!
हरे लॉन-मैदान सुविस्तृत,
फूल-फुलड़ियों से समलंकृत,
धूप जाफ़रानी है उजली,
यहाँ नहीं जीवन की खुजली!
पहलगाम का टल्मल् झरना,
उसे दग्ध जग से क्या करना!
आया दूर कहीं से गाता-
जाने, दूर कहाँ फिर जाता!
यह सुरम्य टनमर्ग वनस्थल,
गहरी घाटी का हरितांचल;
यहाँ बहुत भाये दल के दल-
घने श्याम-जामुनियाँ बादल!
सोनमर्ग की छटा निराली,
गिरिमालाओं की रस-प्याली!
ताजी बर्फ भुरभुरी रसमय,
फैली है-लो कर लो संचय!
सौम्य चिनारों के तरु उन्मन,
देवदारु के छाया-कानन,
किन रहस्य-सपनों में अविरत-
डूबे से रहते सुख-स्तम्भित!
पहने नील जरी की जाली,
मृदु-सुकुमार पटलियों वाली,
रूप-उनींदी गिरिमालाएँ-
लेटीं सम्मुख, दाएँ, बाएँ!
‘नीलम’ झील स्वच्छ मोती-सी-
ज्यों सुख-स्पप्नों में सोती सी-
सुनती कोई राजकुमारी
दूरागत वंशी-ध्वनि प्यारी!
चिर अभाव-मारे, श्रम-हारे,
तरुण, वृद्ध, बालक बेचारे!
हैं तुषार-हत कमलिनियों-सी
कामिनियाँ लगतीं खोये श्री!
दूरवस्थित, जर्जर, औ निर्धन-
गली, चौक, छाजन, घर, आँगन!
यह भू-स्वर्ग विरोधाभासी,
श्री-दरिद्रता का सहवासी!
रूप-कुरूप यहाँ मिल रहते,
मानव-नियति-कथा चिर, कहते!