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चुपचाप / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

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पीड़ा से दिन-रात तड़प कर कुछ तो मन की बात कह गये,
कुछ जीवन को शीष झुका कर, जो आया-चुपचाप सह गये!

मन में मीठी अभिलाषा ले, बैठ रेत के रचे घरौंदे,
पर पानी की लहरें आई, अभी बने थे-अभी बह गये!

बन-बन भटक दीन पंछी ने तिनके चुन-चुन नीड़ रचा था,
सहसा आँधी उठी भयंकर, मन के सारे महल ढह गये!

गिरे वियोगी के जो आँसू, धरती पर हो गये ओसकण,
मोती हुए गिरे जो जल में, नभ में जा नक्षत्र हो गये!

पीड़ा से दिन-रात तड़प कर कुछ तो मन की बात कह गये,
कुछ जीवन को शीष झुकाकर, जो आया-चुपचाप सह गये!