दीप मालिका / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
अहा, रंगिणी दीपकमाला-
आई रे अलका-निवासिनी!
गुंजारित कर शून्य गगन को,
ज्योतित करती बातायन को,
रंजित करती स्निग्ध नयन को
मेरे आँगन में उतरी रे!
आई मुख पर स्मिति उपजाती
जीवन का भय-तिमिर नाशिनी
ओठों पर स्मिति रेख उगाती!
सतरँग स्वप्न-सुकोमल काया,
साँसों में संगीत समाया,
कंठों से गुंजारित करती-
आई मधुमय स्वर्ण रागिनी!
स्वर्ण-किरण-पायल से झंकृत-
ठुमका चरण अलक्तक-रंजित,
अंग-लता लहराती पुलकित,
आई रे यह हिय-हुलासिनी!
नव कदम्ब-कुसुमों सा यौवन,
स्वर्णांचल मंडित गोरा तन,
वासन्ती वैभव अमरों का-
बिखराती आई सुहासिनी!
कितनी ठुमक, पुलक, मृदु गुंजन,
रोम-रोम में सुख का कम्पन,
आई नूतन आस जगाती-
कोकिल-सी संदेशवाहिनी!
मन को सरस, नयन को शीतल,
बुझते प्राण-पथिक को सम्बल,
अधरों को मुसकान-प्रदायक-
आत्मा को चिर शांतिदायिनी!
रंग, रूप, मुसकान, प्रभा नव,
ज्योति, जागरण, मधु, स्वर-वैभव,
प्राणों में भर लो रे, प्यासो-
घर पर आई पतित-पावनी!