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बिधवा सी घूमे मर्यादा / प्रशांत उपाध्याय

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पूजा घर में सूनापन है
भीड़ भाड़ मयखाने में
आगे अभी और क्या होगा
लग जाये आग जमाने में

चारों ओर अंधेरा है
दिखता नहीं सबेरा है
अंधा सूरज लगा हुआ है
अपना द्वार सजाने में

आँखें दिखा रहा हर प्यादा
बिधवा सी घूमे मर्यादा
सच्चाई तो कैद है जैसे
रोगी पागलखाने में

उल्टी सी हर एक कहानी
साँसें माँग रहीं है पानी
अपनी तो जल गयी जिन्दगी
पेट की आग बुझाने में

जिनने हमको पाला पोसा
उनको हमने जी भर कोसा
भेज दिया बृद्धाश्रम में
शर्म लगे अपनाने में

सत्ता है अब नागों की
सुनता कौन अभागों की
संसद अभी व्यस्त है प्यारे
मुद्दों को दफनाने में