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बच्चा और चांद / योगेन्द्र दत्त शर्मा
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यह बच्चा है!
इस बच्चे को
चंदामामा
क्यों लगता
इतना अच्छा है!
क्यों यह
उसकी ओर मुग्ध-सा
देखा करता!
अपने बौने हाथ बढ़ाकर
उसे पकड़ने को ललचाता
पकड़ न पाता
तब झुंझलाता
फिर सौ बार परेखा करता!
यह कितना मन का कच्चा है!
यह कैसा पागल बच्चा है!
बौना-बौना
सुघर-सलौना
यह बच्चा
नन्हा-सा छौना
हठ करता है-
लूंगा मैं तो चांद-खिलौना!
पर मैं अक्सर सोचा करता-
इस बच्चे को
चांद भला क्या दे देता है!
पर यह बच्चा
इस जीवन का अध्येता है
यह जीवन के
रंगमंच का
निश्छल, निर्मल अभिनेता है!
जीवन की
इस यात्रा के
पहले पड़ाव पर
इसको केवल
वह रुचता है-
जो शीतल, सुंदर, सच्चा है!
सत्यं, शिवं, सुंदरं का निःस्पृह अनुगामी
यह बच्चा है!
इसीलिए इस बच्चे को
चंदामामा
लगता अच्छा है!
-10 जून, 1981