याद बेहद आ रहे / योगेन्द्र दत्त शर्मा
जेठ वाली गर्मियों के दिन
अचानक
सुबह से ही छा रहे बादल घनेरे
हड़बड़ाकर आंख खुलते ही
उनींदा-सा उठा मैं
चाय पीकर
नित्य कर्मों से निबटकर
काम करने बैठता हूं
प्रेस मैटर भेजना है
आज ही!
प्रेस कापी कर रहा तैयार,
इस क्रम में
कहानी भी पढ़ी है-
एक भोले, निष्कलुष, मासूम बच्चे की,
पड़ी है डांट जिसको
बेवजह ही;
और बच्चा हो गया गुमसुम
न हंसता, बोलता है
बस सहमकर
यंत्रवत् ही बात करता है
हिलाकर रख दिया उसने
पिता को
और दादी भी परेशां है
मनाती है उसे दिन-भर
पिता भी शाम को आकर
उसे बेहद मनाता है
कलेजे से लगाकर प्यार करता है
उसे उसके पसंदीदा
कलर, पेंसिल, रबर, कापी दिलाता है
उसे पुचकारता है...
और वह रूठा हुआ बच्चा
खुशी से झूम जाता है!
यह कहानी पढ़ रहा हूं
और बरबस आंख मेरी
भीग जाती हैं!
पोंछता हूं आंख अपनी
पर न मन अब
काम करने का रहा है,
आज बच्चे याद बेहद आ रहे हैं!
एक हफ्ता हो रहा है आज
नानी के गये उनको,
बहुत अर्सा हुआ देखे
वही भोले, वही मासूम
बेहद निष्कलुष चेहरे,
वही दो आत्मजा मेरी!
बड़ी वाली-
तनिक-सी शांत पिंकी!
और छोटी-
चुलबुली, नटखट, बहुत शैतान रिंकी!
एक अर्सा हो गया उनसे मिले,
सोचा-
न जाने अब वहां किस हाल में हों
याद करते हों न करते हों
मगर वे खुश रहें!
और ये
आकाश में घिरते हुए बादल
उतरकर
बहुत नीचे आ गये हैं
मन घुमड़ता है अचानक बादलों-सा
आज ये
मन पर घिरे बादल
समूची चेतना पर
बेतरह मंडरा रहे हैं
और आपस में
निरंतर रोर कर टकरा रहे हैं
आज बच्चे याद बेहद आ रहे हैं!
-19 जून, 1997