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वह युग कविता का नहीं / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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गीतों से सारी दुनिया है उकताई
कविताएं रचना बिसरा प्यारे भाई
यह युग कविता का नहीं, लतीफों का है!

गीतों का कोई मोल नहीं आंकेगा
करुणा में इतना व्यर्थ कौन झांकेगा
फूहड़ मजाक तक अगर न तू उतरा, तो-
सड़कों पर बिखरी हुई धूल फांकेगा

तुझको प्रकाश में आना है यदि भाई
छिछले पानी में तैर, छोड़ गहराई
यह युग कविता का नहीं, लतीफों का है!

जितने भी हैं ये पंत, प्रसाद, निराला
पीछे छोड़ेगा इन्हें लतीफे वाला
यह ठेठ हास्य को गहरा व्यंग्य बताकर
मकड़ी बन, कविता पर बुन देगा जाला

यदि तूने इसकी राह नहीं अपनाई
तो सच कहता हूं, पछतायेगा भाई
यह युग कविता का नहीं, लतीफों का है!

इस युग में जो कविता परस्त रहता है
तू देख रहा है, वही त्रस्त रहता है
चुलबुला आदमी चुहलबाजियां करके
औरों को खुश कर, स्वयं मस्त रहता है

तू बना हुआ ज्यों हो पंखुरी कुम्हलाई
तू खिल वसंत-सा मेरे प्यारे भाई
यह युग कविता का नहीं, लतीफों का है!
-मई, 1975