जिन्दगी उलझन भरी / योगेन्द्र दत्त शर्मा
कभी कुछ सत्य दीखे सिर्फ सपने
कभी कुछ स्वप्न दीखे खास अपने
कभी मुंह मोड़ते थे देख दर्पण
कभी सब कुछ किया उस पर समर्पण
कभी वातावरण की दी दुहाई
कभी खुद को टटोला और तोला!
न पछताये कभी तो हाथ से आकाश भी खोकर
कभी कुछ धूल की खातिर गंवादी आंख रो-रोकर
कभी बर्बादियों में हम स्वयं ही रस लिया करते
कभी खुशहालियों में हम स्वयं को कस लिया करते
कभी हम गर्दिशों को झेल जाते हैं सहजता से
कभी आराम के दिन काटते हैं हम विवशता से
कभी सुख के क्षणों को तुच्छ कहकर छोड़ देते हैं
कभी हम दर्द को लंबी उमर से जोड़ देते हैं
कभी हम संयमों को जिन्दगी का सार कहते हैं
कभी कुछ विभ्रमों पर मन हमारा खुद-ब-खुद डोला!
कभी हम हादसों को उंगलियों पर नाप लेते हैं
कभी संभावना के खौफ से ही कांप लेते हैं
कभी तो मुश्किलें हमको बहुत आसान लगती हैं
कभी आसानियां पेचीदगी की खान लगती हैं
कभी पतझड़ हमें महका हुआ मधुमास लगती है
कभी सौरभ हठीले वक्त का परिहास लगती है
कभी हम परिचितों के बीच रहकर ऊब जातेहैं
कभी हम अजनबीपन में उतरकर डूब जाते हैं
कभी हम हो गये दिग्भ्रांत भी, उद्भ्रांत भी पथ पर
कभी हमने स्वयं ही मंजिलों का रास्ता खोला!
कभी हम आग को भी शांत करते हाथ धर-धरकर
कभी चिनगारियों से दूर भागे र्सिु डर-डरकर
कभी हम जा डटे आंधी, घने तूफान के आगे
कभी डरकर हवा के नाम से ही दूर जा भागे
कभी हम जोश में आ, चांद-तारों पर चढ़ा करते
कभी बस दोष सारे सिर्फ किस्मत पर मढ़ा करते
कभी सागर समूचा मुट्ठियों में बांध लेते हैं
कभी छोटी लहर के नाम चुप्पी साध लेेते हैं
कभी हम बन गये हैं चांदनी से भी अधिक शीतल
कभी सूरज-सरीखे बन गये हम आग का गोला!
कभी कड़वा हलाहल हम खुशी से पी लिया करते
कभी परहेज अमृत से, बिना सोचे किया करते
कभी यह जिन्दगी हमको बहुत ही व्यर्थ लगती है
कभी सचमुच किन्हीं गहराइयों का अर्थ लगती है
कभी हम रूढ़ियों में आस्था की बात करते हैं
कभी विद्रोह में उन पर कुठाराघात करते हैं
कभी प्राचीनता बेकार की उलझन लगा करती
कभी यह आधुनिकता खोखला फैशन लगा करती
कभी रंगीनियां हमको बहुत फीकी लगा करतीं
कभी रंगीनियों का हम बदलते नित नया चोला!
हमारी उलझन-भरी है!
और यह उलझन हमें लगती भली है!!
-मई 1974