वन / सुनीता जैन
बहुत दिनों में लौटी वन,
भूली तो न एक निमिष, पल
साथ बढ़े छुट्टपन से जो
यह बड़, नीम, आमला-
कटहल, केले से करता,
बरजोरी यह जामुन,
पीपल, अर्जुन यह,
यह सागवान ज्यों किसी दुर्ग का
प्रहरी
यह मेरा प्रिय आम रसीला,
कोयल सुनवाई जिसने थी,
कविता ज्यों पहली
यह हाथों को, कपड़ों को
रंगता रस से, रंगरेजी-
शहतूत बड़ा, जिसकी हर डाल
घनेरी-छुपे रहे, जब आया
माली
हाँ, यह तो मेरा लहसुनिया
जलती दोपहरी में लदा सदा
ले फल-फल में छोटी गुटकी
गोंद भरी!
यह भूला मुझको कैसे-
नाटा, फैला, चुभता पैना
बेर, लिये अनगिन बेरों की
छाबड़, चित्तहारी
और यह गोरा, गन्धीला
सुन्दर, पुष्ट, सफेदा,
देख जिसे मन, चुटकी-सी
बजती थी
यह कमरक, यह महुआ,
यह खिरनी सोने-सी, जामुन ढिग, ज्यों
कृष्ण खड़े संग रघुराई-
आने तो दो बाहर निक, अब,
यह बैठा रुठ कनेरा
वृक्ष नहीं तो क्या, झाड़ी से तो
अच्छा, पूजा हित ले लेकर
पीली मकरन्द-डुबी, फूल-टोकरी
यह मेरा लाल गुलकन्दी!
कितने हाथों से पकड़ा करता
मेरी छोटी, यहाँ वहाँ गिर जाती चूनरी
और यह बेला, उठ मुझसे पहले
भर सुवास साँसों में
गा आती प्रात भैरवी
यह गेन्दा, यह गुलदौदी,
यह चम्पा, जाने क्यों
राधा को जमुन पुलिन पे
सदा याद दिलवाती
और इन से भी ज्यादा, मेरी-
पैरों से बालों तक मुझमें
भर अपने पन्नग हाथों का
ममतीला स्पन्दन-यह धरणी,
यह वनदेवी, माँ-सी प्यारी,
माँ मेरी
खेलें चारों ओर दिशा में
बाल ग्वाल से जिसके,
पटबीजन, आक-धतूरा, अलसी
और उनसे भी छोटे-छोटे
बथुआ, गोक्षर, रंग-बिरंगे-
फूल-दुपहरी!