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भाषा से भाँवर पड़ा / सुनीता जैन
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तुम मुझसे पहले
कोई बाद मेरे
गाते थे
गायेगा
और इसी तरह यह ज्वाला जलती
शब्दों के प्राणों में
दहक-दहक लय भरती
यही तो कवि-
कर्म है
और यह ही होता रहता
हम सबके भीतर:
साँसें सुलगाती अपनी काया
समिधा में देने को
पल-पल प्रतिदिन का,
बस अंजुरी में कभी-कभी
हेम कणि अर्थों की
उज्ज्वल शाश्वत
रह जाती
अब तुम मुझसे
बात कहो न विडम्बनाओं की
यह कुछ न कहना,
कुछ न मिलना,
अनुपल-अनुपल गलना
कहीं अकेले चलना
इन वाचाल चतुर सयानों में
बस टुकुर-टुकुर तकना
यह ही तो है
मन का
भाषा से
भाँवर पड़ना