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खोल दी खिड़की कोई / सुनीता जैन
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खोल दो खिड़की कोई
गहरी बहुत गहरी घुटन है
दिन नहीं बीते
खिले थे बौर
पेड़ों पर जले थे
लाल पीले रंग रंगों के
दिन नहीं बीते गुदे थे
गोदने गोरे बदन पर
जाग कर सोए प्रणय के
यह भरी मुट्ठी किरक की
आँख में पूरी गिरी
तुमने समेटे बोल-
गूँगी मैं हुई
हो गई क्या भूल, पूछूँ?
या कि फिर तुम ही अघाए
कुछ भी सही
जो सत्य है वह सत्य है
अब नहीं जीना मुझे
उम्मीद से उम्मीद तक
खुलकर कहो
अंततः यह अंत है