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मैं चाहे मरुस्थल हो जाऊँ / सुनीता जैन
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मैं चाहे मरुस्थल हो जाऊँ
दूर-दूर तक
झाड़ी न हो
उड़ता कोई
पाखी न हो
पानी का भी
सपना न हो
पर तुम को
अपना क फिर,
आत्मघात का
निश्चय न हो
व्यापती रही व्यथा
सब ने सींचा
अपना-अपना सुख
तुम ने
मैंने
उसने