भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं चाहे मरुस्थल हो जाऊँ / सुनीता जैन

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:24, 17 अप्रैल 2018 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं चाहे मरुस्थल हो जाऊँ

दूर-दूर तक
झाड़ी न हो

उड़ता कोई
पाखी न हो

पानी का भी
सपना न हो

पर तुम को
अपना क फिर,

आत्मघात का
निश्चय न हो