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चार आने घंटा / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर

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यह बात उन दिनों की है
जब बच्चों के पास नहीं होती थी अपनी साइकल
किराये की सायकलें ही होतीं मुफ़ीद
सीखने के लिए
किराया - चार आने घंटा

एक शांत-सी गली में
नन्ही सायकल चलना सीखती
और गुरुत्व बल को खुराफ़ातें सूझतीं
यह उन दिनों की बात है
जब हर लड़खड़ाती साइकल के साथ
एक भाई या दोस्त दौड़ा करता था
बेहद चौकन्ना और जवाबदार ।

वह टेका लगाने की बल्ली भी था
और मटका थापते कुम्हार का हाथ भी
संतुलन नहीं था उसके बिना संभव
गुरुत्व के सारे बल बे-असर थे उसके आगे

आज इतनी संपन्नता
कि हर बच्चे के पास साइकल
लेकिन विपन्नता बस इतनी
कि साइकलों के साथ दौड़ने वाले
भाई या दोस्त अब नहीं मिलते

समय सबसे महंगी धातु है
दूसरों को गढ़ने मे इसे गंवाना
अब
एक आत्मघाती विचार

यह मनुष्यता के संकट का दौर है
और उपचार तकनीकों से किए जा रहे

अब देखिये नन्ही साइकलों के पीछे
दायें-बाएँ घूमते
दो छोटे रक्षा पहिये।

जब देखता हूँ उन छोटे पहियों को बचाव में घूमते
याद आते हैं
साथ दौड़ते भाई या दोस्त
बेहद चौकन्ने और जवाबदार
...और समय भी
जो मिट्टी की तरह
हर कहीं उपलब्ध था
और उसका कोई किराया नहीं था।