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रंगोली बनाती लड़की / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर
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रंग का हर कण
वास्तव में मिट्टी का कण है
वह कठपुतली की तरह
नचाती है रंगों को
रंग उसके मन का अभिनय करते हैं
हर आकृति में कोई नया ही किरदार
सब के चेहरों पर
भाव लेकिन एक
कि त्यौहार जीवन का रस है
सारे रंग बह रहे हैं
उसके भीतर से ही
उसकी चुटकी रंगों का आबशार है
और वह ओटला जो क्षण भर पहले
रंगमंच था
अब एक समुद्र है
( त्यौहार का अगला दिन रीता हुआ )
थकान और ऊब से भरे
रंगों के चेहरे
लड़की उनसे लौट जाने की गुहार करने आई
उड़ने लगे रंगों के चमकीले बाने
अपनी भूमिकाएँ उतार
आकृतियों से छूटकर वापस लौटते हैं रंग
मिट्टी अपना दरवाजा खोलती है।