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सुप्त प्रेम बीज / राजेश शर्मा 'बेक़दरा'

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हर सपना
आंखों में आखिर
कब तक ठहरे
सपने भी आखिर
थक कर चूर हो जाते हैं
वो सपने फिर अन्तस् में
थक कर सो जाते हैं
एक गहरी नींद के साथ
हमबिस्तर होकर
मिट्टी व अंधेरे में छुपे
सुप्त बीजपत्रो की भांति
जो प्रतीक्षारत रहते हैं
कुछ उम्मीदों की एक अनवरत
श्रंखला के साथ
कुछ उम्मीदों नम मिट्टी की
कुछ उम्मीदे बागबान की
कुछ उम्मीदे प्रेम वर्षा की
कुछ उम्मीदे उपयुक्त भाग्य की
कुछ उम्मीदे उचित समय की
तुम भी जीवित हो मुझमे
सुप्त प्रेम बीज की भांति
ओर मैं प्रतीक्षारत
कुछ उम्मीदों की
अनवरत श्रंखला के साथ