भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रूपैया / मथुरा प्रसाद 'नवीन'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:34, 24 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मथुरा प्रसाद 'नवीन' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब सुनो एगो बात,
न जाड़ा हलै न बरलात
गरमी पड़ रहले हल काफी,
एगो बूढ़ा
अपन भुंसघर में
ले रहल हल हाफी पर हाफी
हम की जानी
बह रहले हल
ओकर आँख से पानी
हम पुछलियै कि
बूढ़ा की हो तोरा तकलीफ
कि जे कहलकै से सुनो
और मनै मन गुनो
ई समय हे कँढ़ैसा,
की नै करबावऽ एखन पैसा
बेचारा बूढ़ा
जीवन भर तो कमैलकै
लेकिन पेट भर
कभी नै खैलकै
जब जोर लेलकै धन,
तब बनैलके संगमरमर
के चौ मंजिला भवन
बुढ़ारी में सब छिना गेलै
ओकर नेटा-पोटा से
बाल-बच्चा घिना गेलै
ओकर बेटे
भुसहर में हँटा देलकै,
न खाय के ठिकाना, न पिअै के
बेचारा के टटा देलकै
ई भी होतै
बेचारा नै जानऽ हल
जब जब
याद पड़ऽ हलै
अपन कमाय के,
फूट-फूट के कानऽ हल
ओकरा भिर
एक दिन एलै एगो भिखारी,
भिखारी हलै तो अनारी
फटल चिटल भेस
से देलकै
बूढ़ा के
केतना बढ़ियाँ उपदेस
कहलकै-भैया
दुनिया में
सबसे बड़ा रूपैया
हे बूढ़ा।
अगर तोरा पास पाय हो,
तब तो उपाय हो
बूढ़ कहलकै-
नै बाबू,
नै हमरा पैसा,
नै हमरा काबू,
अब नै सहल जा हो ई लहर,
मन करऽ हो
पी जइओ एक कटोरा जहर
भिखारी
गेले अकबका,
बूढ़ा निकाल के देखैलकै
ओकरा दू गो टका
भिखारी कहलकै कि
एकरा नै समझो कम,
इहे दू टका
काम करतो जइसे एटम बम
ला ई पत्थर धरो,
और हम जे कहऽ हियो करो
ऊ तो मांगऽ हल भीख,
बूढ़ा के अच्छा लगलै
भिखारी के सीख।
दू गो रूपैया ओकर धन,
रात भर
बैठ के टनाटन टनाटन
बस उसक गेल
बिड़नी चलो बाबा घर
ऐजा रात में
पकड़ लेतो भूत
बूढ़ा भितरे-भितरे अक-बक
घर जइते मिललै
ओकरा तकिया अउ तोसक पर तोसक
जब चूअऽ हल
लार अ खखार,
बेटा पोता
दे हलै अपन अपन हाथ पसार
जब बूढ़ा मरलै,
सिरहाना से दू गो रूपैया निकललै।