भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गरीब के आह / मथुरा प्रसाद 'नवीन'

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:03, 24 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मथुरा प्रसाद 'नवीन' |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

के जानऽ है कि
केखने धरती डोल जा हे?
जब गरीब के
काया कँहरऽ है,
तब परकिरती
हल्ला बोल दे है
तब झोपड़ी रह जा है
ऊँचा ऊँचा महल ढ़ह जा है
देखो ने रूस,
महल सब ढ़ह गेलै
रह गेलै फूस
गरीब आहऽ हे
लेकिन दुस्मनो के घर नै ढ़ाहऽ हे
गरीब तो समझ गेलै हे
भाग आउ भगवान में बझ गेले हे।