भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लावा / कल्पना सिंह-चिटनिस

Kavita Kosh से
Sirjanbindu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:36, 29 अप्रैल 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कल्पना सिंह-चिटनिस |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


वे कैसे हो सकते हैं खामोश
जो लाये थे शब्द डूबकर
शताब्दियों के प्रवाह से

एक आग पी थी
और उगाये थे शब्द
हथेलियों पर

आवाज़ जिनकी
उधार नहीं
वे क्यूँ हैं खामोश?

या लहकती हैं आज भी कहीं
अस्थियां उनकी देह में
और सुर्ख़ है लहू?

फिर क्यों हैं वो
बर्फ की तरह सर्द
सफ़ेद?

जो अपनी ख़ामोशी से हमें करते हैं हैरान,
देखते हैं वे भी
सड़कों पर फैलता लावा।