भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अट्टहास / जगदीश गुप्त

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:46, 3 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |अनुवादक= |संग्रह=नाव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पागल हो जाऊँगा,
हँसो नहीं,
अपनों पर क्या कोई ऐसे हँसता है।
मेरे मन को रह रह कर संशय डसता है।
बन्द करो अट्टहास
अट्टहास बन्द करो
इसमें छटपटा रहीं आँसू की धारें हैं,
इसमें आत्मा की हत्या की चीत्कारें हैं।

बन्द करो
इस सूने रव की भैरवता को मन्द करो।

माना हमने अपनी आत्मा को बेच दिया,
अपने विश्वासों का वध अपने आप किया,
श्वासों की पूजा प्रतिमाओं को तोड़ दिया।
जीवन को पापों से, शापों से बाँध लिया।
फिर भी तुम हँसो नहीं
मेरे अन्तर के सब बान्ध टूट जाएँगे।
परिचय के क्षितिज और दूर छूट जाएँगे।

रुको रुको !
पंजों में कोई यों प्राणों को कसता है।
मेरे मन को रह रह कर संशय डसता है।
अपनों पर क्या कोई ऐसे भी हँसता है।
पागल हो जाऊँगा —
हँसो नहीं।