भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पानी गहरा है / जगदीश गुप्त

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:57, 3 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |अनुवादक= |संग्रह=नाव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पानी गहरा है पर थाह नहीं पाता हूँ।
लहरों में अनचाहे लहर-लहर जाता हूँ।

कोलाहल धूल भरा तट कब का छोड़ चुका।
मन की दुर्बलताओं के बन्धन तोड़ चुका।
पर जाने क्या है —
जब गहरे में चलने को होता हूँ
ठहर ठहर जाता हूँ।
पानी गहरा है पर थाह नहीं पाता हूँ।

झिलमिल जल की सतहों बीच सत्य दीख रहा।
उसमें घुल जाने को।
अपने ही पाने को।
साँस साँस तड़प रही - रोम रोम चीख़ रहा।
माना यह तत्वों की, मिट्टी की, जल की है।
मन की तुलना में पर देह बहुत हलकी है।
इसको तट ही प्रिय है, चाह नहीं तल की है।
इसके निर्मम हलकेपन से ही बन्धा बन्धा,
जल के आवर्तन में छहर छहर जाता हूँ।
पानी गहरा है पर थाह नहीं पाता हूँ।