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अक्षर और आकृति / जगदीश गुप्त

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क्या बताऊँ,
था न जाने किस जगह मन
जो परत खोला किया हर बार काग़ज़ मोड़कर।
फिर लहर-सी आई अचानक
लिख दिए कुछ नाम बेसोचे विचारे
हाशिए के बीच में, कुछ हाशिए को छोड़कर।
क्षण भर रुका पेन —
और फिर कुछ अधबने अक्षर सँवारे,
पाइयों के शीश को ऊपर उठाया,
मात्राओं के अनूपुर चरण अनुरंजित किए,
नूपुर पिन्हाए,
सभी सीमाएँ मिलाईं,
नई रेखाएँ बनाईं
यहाँ तक
वे नाम सारे खो गए
उन लकीरों के जाल में निःशब्द
अक्षर सो गए
सहसा उभर आई उन्हीं को जोड़कर
आकृति नई
हर एक रेखा उसी में घुल-मिल गई।
कुछ नाम अलकों में समाए
और कुछ दृगों में बस गए,
कुछ चिह्न उलझी बरुनियों में कस गए,
कुछ छिप गए अंकित अधर की ओट में —
चुपचाप,
प्राणों के अनेकों द्वार
करती पार
आई उभर अपने आप
खोई हुई-सी पहचान।