भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

समझदार होने में खोया / अंकित काव्यांश

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:47, 7 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंकित काव्यांश |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

समझदार होने में खोया हमने भावुक मन

हँसता आँगन देख सँवरती नटखट चौखट
पुरखों की चौपालें जुमले और कहानी।
उलझन सुलझाने में माहिर दादी वाले
किस्सों में ही राह सुझाते राजा रानी।

लौट गए सब वापस अपने कथा लोक में
जाने क्या कुछ और ले गया अँधा पागलपन
समझदार होने में खोया हमने भावुक मन।

बिम्ब बनाना भूल गए अब नील गगन पर
सपनों की किरचन रह रह कर चुभती रहती।
अनचाहे संघर्षो तक थककर आ सिमटी
साँसों की लय काल-ताल को सहती सहती।

एक हिरन तो दूजे को बतला सकता था
कस्तूरी तेरे भीतर मत घूम अनेकों वन।
समझदार होने में खोया हमने भावुक मन।