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तितली के पंख / जगदीश गुप्त

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इन्द्रधनुष के टुकड़ों जैसे
तितली के रँग भर चटुल पँखों की सुन्दरता से बिन्धकर
ओ बेसुध हो जाने वालो !
तितली केवल पँख नहीं है !
तितली में है जान एक नन्हीं प्यारी-सी
जो उड़ते-उड़ते थक जाती
एक फूल पर रुकते-रुकते तैर और फूलों तक जाती
जो पराग से प्रान पोसती
जो मरन्द से हृदय जुड़ाती।
फिर भी जिसकी भूख न मिटती
फिर भी जिसकी प्यास न जाती।
उसके दो रँगभीने पर हैं।
मानो वे बेहद सुन्दर हैं।
फिर भी तितली पँख नहीं है।
तितली केवल पँख नहीं है।

पल भर सोचो
अगर किसी अनजान चोट से
यह तितली घायल हो जाए
और टूटकर दोनों नाज़ुक पर गिर जाएँ।
तो क्या होगा?
रँग-रूप की रेखाओं से रचे रँगीले
लाल सुनहले नीले पीले
इन्द्रधनुष के टुकड़ों जैसे
पँख बिचारे
फिर आपस में जुड़ न सकेंगे
प्रात पवन की सुरभि लुटाती हिलकोरों पर
थिरक-थिरक कर उड़ न सकेंगे !
और लगेगा
यह तितली भी कीड़ा है बस
वैसा ही जैसे धरती पर बहुत रेंगते
सने धूल से
जो आए दिन घायल होते
कभी किसी की ठोकर खाकर
कभी किसी की क्रूर भूल से।

यह तितली के पँख रँगीले
सिर्फ़ सत्य का एक रूप हैं
वह भी ऐसा जो छूने से ही मिट जाए
उँगली के पोरों से पूछो
कभी जिन्होंने कहीं छुए हों तितली के पर
छूत-छूते हाथों में रँगीन चित्र सब सन जाएँगे
बिखर न जाने कहाँ सुनहले नीले-पीले कन जाएँगे
बस ढाँचा ही शेष रहेगा
बने रहेंगे रँग न वैसे
और न वैसा वेश रहेगा
इसीलिए तो मैं कहता हूँ
थिरक-थिरक कर उड़ने वाली
प्रात पवन की सुरभि लुटाती साँसों के संग मुड़ने वाली
चटुल रँगीली
नीली पीली
तितली केवल पँख नहीं है।