भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिन ये ज़ोर-ज़बरदस्ती के / नईम
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:21, 13 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दिन ये ज़ोर-ज़बरदस्ती के,
जंगल के हों या बस्ती के।
धुर व्यक्तित्व हुए अखबारी
आधे से इनमें सरकारी,
नकली के असली विज्ञापन।
सुरुचि, शील खालिस दरबारी;
विगत कहीं खो गई हमारी,
दिन आए फाइल नस्ती के।
ग़ैरों के हाथों में चोटी
सोच-समझ हो या फिर रोटी,
बिला शर्त ही किए समर्पण
फूटे कान, आँख कजरोटी;
पीर, मलंग प्रतीक बुढ़ाने,
पते गु़मे अपनी हस्ती के।
खेत हमारे उनकी फसलें
मूल छोड़कर संकर नस्लें,
चीन्ह नहीं पाते शीशे में
भदराई अपनी ही शक्लें;
खड़े हुए यमदूतों से दिन
परवाने लेकर गश्ती के।
महँगी पीकर अमर हुए दिन,
मरते हैं पीकर सस्ती के।