Last modified on 13 मई 2018, at 23:12

नागर दिन हो न सके / नईम

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:12, 13 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

नागर दिन हो न सके नीमगाछ-छाँहों से,
दोराहे पूछ रहे बढ़कर चौराहों से!

जाना है कहाँ,
कुछ पता तो दो।
महँगाई, मौसम के,

हाल कुछ बता तो दो,
पूछ रहे भूखों की खैर चरागाहों से!

चौराहे बोले-
हम तो जुलूस रैली हैं।
कुंठित अभिव्यक्ति

किंतु अधुनातन शैली है।
प्यार नहीं बँधता अब परम्परित बाहांे से!

समय बाँस से अब भी
नप रहा किसानों में।
पगडंडी छूट गईं
गाँव घर सिवानों में!

अंधे क्यों पूछ रहे प्रश्न, किन निग़ाहों से?
दोराहे पिछड़ गए शायद चौराहों से!