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आठों पहर, महीनों, बरसों / नईम

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आठों पहर, महीनों, बरसों,
रोज़-रोज़ के ही रोने हैं।

बेटे-बहू, ननद, देवर के,
कुछ बाहर के कुछ भीतर के,
निकले रहे पैर चादर से।

रिश्ते चमक रहे चौकस पर
गिलट या कि नकली सोने हैं।

मौसम के बदलाव मर्ज़ से,
आमद से कुछ अधिक खर्च से,
फर्क नहीं पड़ता है अब तो
इस जीवन की किसी तर्ज़ से।

दारुण समय, किंतु इसमें ही-
ब्याह-सगाई औ गौने है।
चलती चक्की देख कबीरा रोए,
लेकिन हँसे बजीरा,
भूखे पेटों भजन न होते,
फूटी ढोलक और मंजीरा।

काठी से हों भले ऊँट हम,
किंतु शख्सियत से बौने हैं।
कोई नहीं समूचा हममें
सबके सब औने-पौने हैं।